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________________ १. गिरी, २. पुरी, ३. भारती, ४. सागर, ५. आश्रम. ६. पर्वत. ७. तीर्थ, ८. सरस्वती, ९, वन, १०. आचार्य । श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में नामकरण विधि का सबसे प्राचीन, विशद और स्पष्ट उल्लेख खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य श्री वर्द्धमानसूरिजी रचित 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ में विस्तार के साथ मिलता है जो वि० सं० १४६८ का० सु०१५ जालन्धर देश पंजाब के नन्दवनपुर (नांदौन) में विरचित है। इसमें नाम परिवर्तन का कारण बतलाते हुए लिखा है कि पूर्वहि जैन साधुत्वे सूरित्वेपि समागते । न नाम्नां परिवतोभून्मुनीनां मोक्ष गामितां ।। ६ ।। द्वार के पृ० १३ में बतलाया है कि 'पंचवस्तु' नामक ग्रंथ में इस प्रथा का उल्लेख पाया जाता है। नाम परिवर्तन की प्रथा श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है जो स्थानकवासी, तेरापंथी. लौंका, कडुआमती के अतिरिक्त मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में तो है ही परन्तु वे लोग स्वामी, ऋषि, मुनि आदि विशेषण मात्र लगा देते हैं। आजकल तो तेरापंथी समाज में भी नाम परिवर्तन करने की प्रथा कथंचित् प्रचलित हो गई है। दिगम्बर सम्प्रदाय में सागर, भूषण, कीर्ति आदि नामान्त पद प्रचलित हैं। यतः-शांतिसागर, देशभूषण, महावीर कीति। आनंद नंदी भी विद्यमान है। यतः विद्यानंद, सहजानंद आदि। इनके साथ-साथ चंद और सेन भी गण/ संघ की परिपाटी में प्रचलित है। वर्तमान काल में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के तपागच्छ में सागर, विजय, विमल और मुनि एवं खरतरगच्छ में सागर व मुनि नाम प्रचलित हैं। पायचंदगच्छ में चन्द्र और अंचल गच्छ में सागर नामान्त पद ही पाये जाते हैं जव कि प्राचीन इतिहास में इनके अतिरिक्त बहु संख्यक नामान्त पद व्यवहृत देखने में आते हैं। हमें इस निबन्ध में इन नामान्त पद जिन्हें 'नन्दी' कहा जाता है पर विस्तार से विचार करना है। इस प्रकार के नाम परिवर्तन की प्रथा भारत और यूरोप आदि देशों के राज्य तन्त्र में तो पायी जाती ही है पर दीक्षान्तर नाम परिवर्तन की प्रथा वेदिक सम्प्रदाय में भी प्राप्त हैं । 'दर्शन प्रकाश' नामक ग्रंथ में संन्यासियों के दस प्रकार के नामों का उल्लेख संप्राप्त है। यतः १. गिरी-सदाशिव, २. पर्वत पुरुष. ३. सागर-शक्ति, ४. वन-रुद्र, ५. अरिण-ॐकार, ६. तीर्थ-ब्रह्म, ७. आगमविष्णु, ८. मठ-शिव. ९. पुरी-अक्षर, १०. भारती-परब्रह्म । 'भारत का धार्मिक इतिहास' ग्रन्थ के पृष्ठ १८० में दस नामान्तपद इस प्रकार बतलाये हैं साम्प्रतं गच्छ संयोगः क्रियते वृद्धि हेतवे। महा स्नेहायायुषे च लाभाय गुरु शिष्ययोः ।। ७ ।। ततस्तेन कारणेन नाम राश्यनुसारतः । गुरु प्रधानतां नीत्वा विनयेनानुकीर्तयेत् ॥ ८॥ नंदी, नाम के पूर्वपद के सम्बन्ध में पृ० ३८६ में लिखा है कि-नाम तथा योनि १ वर्ग २ लामालाभ ३ गण ४ राशि भेद ५ शुद्धं नामं धात् नाम स्यात्पूर्वतः साधोः शुभो देव गुणागमैः। जिन कीति रमा चन्द्र शीलोदय धनैरपि ।।२०।। विद्या विमल कल्याणै र्जीव मेघ दिवाकरः। मुनि त्रिभुवनांभोजेः सुधा तेजो महानृपैः ।।२१।। दया भाव क्षमा सूरैः सुवर्ण मणि कर्मभिः । आनन्दानन्त धर्मेश्च जय देवेन्द्र सागरैः ॥२२॥ सिद्धि शान्ति लब्धि बुद्धि सहज ज्ञान दर्शनैः । चारित्र वीर विजय चारु राम मृगाधिपैः ।।२३।। मही विशाल विबुध विनयै नय संयुतैः। सर्व प्रबोध रूपैश्च गण मेरु वरै रपि ।।२४।। २२८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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