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साधक मुनिजन सुधिजन सब आपको परमातमा। अज्ञानतम को हरणकारी मानते सूरज समा ।। हो जाएं मृत्युंजयी हम भी आपको पाकर सही। नहीं अन्य शिव पद मार्ग कोई मान्यता मेरी यही ॥२३॥
स्वर्णिम सुमेरु शिखर पर ज्यों वार सुचि निर्झर वहे। त्यों उभय और जिनेन्द्र के ही शुभ्र चामर दुलि रहे ।। शशि समुज्ज्वल वारिधारा सम लखें अति शोभती। तीसरे प्रतिहार्य वर्णन लहर भवि मन मोहती ॥३०!!
गुण गान करने संतजन तो निरंतर उद्यम करे। अव्यय अनंत अनूप आद्य अचिंत्य असंख्य प्रभु खरे ।। सर्वज्ञ एक अनेक ब्रह्मा कामकेतु योगीश्वरा । योग मारग अमल ज्ञाता जय जयो जगदीश्वरा ॥२४॥
शशि समुज्ज्वल छत्रत्रय रवि ताप सर्व निवारते। श्वेत मुक्ताफल लड़ी बेजोड़ शोभा धारते ।। तीन जग के नाथ को ऐश्वर्यता यह प्रगट है। परमात्म की प्रतिहार्य महिमा पार पाना विक्ट है ॥३१॥
विबुध पूजित बोध-दायक आप निश्चित वर हो। त्रैलोक्य के कल्याण कर्ता आप शंकर शुद्ध हो। शिव मार्ग की विधि के विधाता सत्य ही तो आप हो। आप उत्तम पुरुष भगवन् पुरुषोत्तम गत पाप हो ॥२५॥
देवगण गंभीर स्वर से वाद्यध्वनि विस्तीर्यते। आदि जिन की दशो-दिश में यशो गाथा गीयते ॥ सधर्म की जय-घोषणा मुखरित हुई सव देश में ! दंदुभि प्रतिहार्य पंचम त्रिदशपति संदेश में !!३२।।
त्रैलोक्य के चिन्तानिवारक नाथ तुमको नमन है! सकल भूतल आभरण सुविशुद्ध प्रभु को नमन है । तीन जग ऐश्वर्यशाली परमेश्वर तुम्हें नमन है। भव जलधि शोषक परम तारक जिनेश्वर को नमन है ॥२६।।
पंचवर्णी सुमन वृष्टि पारिजात मन्दार के। नंदन-वनादि मेरुगिरि उत्पन्न भिन्न बहार के।। समवसरण सुशोभती ज्यों पंचांगी वाणी खिरी। प्रतिहार्य छट्ठा बहु सुगंधित द्वादशांगी अनुसरी ॥३३।।
मुनि ईश तेरे हृदय में गुण गण सकल आकर बसे। अवकाश लेश नहीं रहा अभिमान से अवगुण खिसे । अन्य देवों में हमें पर्याप्त आश्रय मिल रहा । सगर्व वेपर्वाह हो सपने में नहीं आना चहा ॥२७||
द्य तिवंत अमित सुज्योति शोभित प्रभामण्डल नाथ का। कोटि सूरज : शशि सुमिश्रित तेज शीतल साथ था। अंधकार नाशक रात्रि का प्रभु तेज पुंज सुहावना । सातवां प्रतिहार्य जिनवर पृष्ठे शोभित अति घना ॥३४।।
वृक्ष बारह गुणा ऊंचा प्रातिहार्य प्रथम खरा। अशोक तल काली घटा में विमल भानू जिनवरा ।। देशना वितरित किरण से जन भव्य कमल विकस्वरा। मुमुक्षु जन के हृदयगत अज्ञान-पाप-तमो-हरा ॥२८॥
आठवाँ प्रतिहार्य भाषा से संबंधित नाथ का। स्वर्गापवर्गी पथप्रदर्शक तत्व धार्मिक गाथ का ॥ निज भाष में सहु देशभाषी कलना सरलता से करे। सर्व भाषा शब्द स्पर्शी जिनोपदेश हिये धरे ॥३५॥
मणि किरण से सुविचित्र चित्रित सिंहासनोपरि राजते। ज्यों अंशुमाली उदयगिरि पर मनसि कविजन भासते ।। आदीश जिनकी देह कंचन वर्ण की महिमामयी । प्रतिहार्य यह भविजन कुमुद को शीघ्र करता निर्भयी ॥२९||
भगवान पद धरते जहां कंचन कमल संचार हो। ऐसी व्यवस्था भक्त सुरगण करे धर्म प्रचार को ।। नख कांति किरणें चमकती जिनराज ऐसे अतिशयी। भवभ्रमण-हारी तीर्थपति की है परम गरिमा सही ॥३६||
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