________________
किरण उषाकाल पड़ते कमल सहु विकसित हुए। गतदोष प्रभु तव सत्कथा से पाप पुञ्ज सभी दहे। सूर्य तो अति दूर है पर किरण पड़ते ही अभी। सर स्थित कुमुद विकास सम स्तोत्र गुण जानें सभी ।।९।।
तेल बाती हीन नहीं किंचित् भी रठता धूम है। ऐसा अजब दीपक प्रकाशक तीन लोक अन्यून है। पर्वत प्रकम्पी वायु भी नहीं वुझा सकती है जिसे । हे नाथ आप स्व-पर प्रकाशी उपमान में रखें किसे ।।१६।।
हे भुवन-भूषण ! नाथ नहीं आश्चर्य आप शरण्य हैं। निज तुल्य सेवक करें स्वामी आप सह कारुण्य हैं। मैं भी तुम्हारी भक्ति से इच्छू न क्यों समकक्षता। गुण स्तवन करके नाम से निश्चय लहूँ पद सिद्ध का ||१०||
भानु तो है अस्त होता सदोदित प्रभु आप हैं। राहू न जिसको लीलता वारिद आवरण अव्याप हैं। सीमित प्रकाशक दिवस में जो सूर्य की उपमा कहाँ। महा महिमावंत मुनिपति आपका आसन जहाँ ।।१७।।
अनिमेष दर्शन कर प्रभु सम रूप अन्य स्थान में । नहीं प्राप्ति नहीं संतुष्टि भी अंतर हृदय अभिराम में ।। क्षीरसागर चंद्र यति जल अमृतोपम पान कर । कौन वांछक लवण जल के पान का जो अशुचिकर ।।११।।
महा मोहान्धकार नाशक आपका मुख चंद्रमा । सर्वदा है उदित जो श्री कान्ति युक्त अनोपमा ॥ राहु ग्रसे नहिं घन-घटाओं से भी अन आवरित जो । शोमा विलक्षण चंद्र तुलना नहीं त्रिजग उद्योत को ||१८||
परमाणु उत्तम शांति के जो रहे त्रिभुवन सारमय । वेजोड़ रचना देह जिनकी हुई जग जन नष्ट भय ।। सवही अणु आकर जुड़े अन्यत्र तो अप्राप्त हैं। प्रशान्त सह गुण पुंज तो जिन देह में ही व्याप्त है ।।१२।।
अहर्निश मुख चंद्र प्रभु का दीप्तिमय अनवरत है। तो रात्रि में शशि और दिन में भानु भी तो व्यर्थ है। वनराजि विकसित धान्य शोभित देश में जलवृष्टि का।' नहिं काम शीत रु ताप का जल मात्र कादासृष्टि का ||१९||
सुर नाग नर आनंददाता आपका मुख चंद्र है। त्रैलोक्य अनुपम वस्तु सहु प्रतियोगिता में मंद हैं | म्लान मुख दिन में कलंकित भासता जो है शशी। पीत वर्ण पलाश सा छविहीन देखत हैं सभी ।।१३।।
मणि-रत्न में जो दिव्य ज्योति भासमान रहे सदा । वह वालू निर्मित कांच में नहिं प्राप्त हो सकती कदा ॥ स्व-पर भावों के प्रकाशक नाथ का जो महत्व है। हरि ब्रह्म शिव प्रभृति में अप्राप्य वैसा सत्त्व है !|२०||
यूर्णिमा के चंद्र सम उज्ज्वल तुम्हारी ज्योत्सना । व्याप्त त्रिभुवन में सहु गुण त्रिजगनाथ महामना ।।। प्रभु शरणदाता आपके आश्रित सभी तो हैं सही। विचरें अबाधित यथा इच्छा कोई अटकावे नहीं ||१४||
देखना लगता है मुझको देव हरिहर ठीक हो। कर दोष गुण तुलना प्रभु से हुई संतुष्टि सही ॥ गुण मानता मैं परीक्षा कर आप प्रति श्रद्धा अटल । जो हो गईभव भवान्तर में रहेगी शाश्वत अचल ||२१||
देवांगना रति रंभ आदिक चित्त चंचल कारिका। हरिहरादि को हराये किन्तु जिन निर्विकारता ।। प्रलय काल तूफान से हैं डोलते सव गिरिवरा । • मंदराद्रि शिखर ज्यों प्रभु निर्विकार रहे स्थिरा ||१५||
सुत जन्म देती है हजारों नारियाँ नित लोक में । किन्तु नहिं समकक्ष प्रभु के लक्ष लक्ष अनेक में । दिशि-विदिशि में नक्षत्र तारे उदित अगणित हैं सही। प्राची दिशा विन अन्य कोई भानु उपजाती नहीं ॥२२॥
[ १११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org