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________________ तत्वज्ञ सुरपति विमल बुद्धिवान स्तवना जो करी। त्रिजग मनहर शब्द रचना उदार विद्वत्ता भरी। आदिनाथ जिनेश का गुण गान मन उत्सुक भया । आश्चर्य शक्तिहीन भी इस कार्य में उद्यत हुआ ।।२।। प्रतिविम्ब जल के चन्द्र को भी हस्तगत करने यथा। अवोध शिशु अज्ञानवश होता समुद्यत है तथा ।। विबुध पूजित नाथ तेरा स्तवन करने के लिए। बाल चाल अवश्य किन्तु सुधीजन करुणा हिये ॥३॥ भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी पद्यानुवाद ) गुणरत्न के सागर भरे प्रभु की असंभव वर्णना। असमर्थ सुरगुरु भी रहे पूरण जहाँ सुज्ञान गरिमा !! दुर्द्धर्ष सागर प्रलय वायु से उद्वेलित जो रहा। तिरने उसे निर्दल भुजा से कौन है समरथ महा ।।8।। भक्ति प्रेरित आपकी मुनिनाथ मैं उद्यत हुआ। करने लगा गुण गान शुचि असमर्थता भूला भया ।। ज्यों प्रीतिवश निज शिशु बचाने को मृगी जाती भली। वनराज से निर्भय बनी साहस सहित भिड़ने चली ।।५।। [समस्त जैन समाज में भक्तामर स्तोत्र का प्रचार सर्वाधिक है। इसके नित्यपाठी भी बहु संख्यक लोग हैं। इस पर अनेक टीका. वार्ता, यंत्रादि सह सचित्रप्रतियाँ भी उपलब्ध हैं। लगभग ७५ पद्यानुवादों का विभिन्न कवियों द्वारा निमित संग्रह पं० कमलकुमारजी जैन ने किया है। मैंने पहले भक्तामर का गुजराती पद्यानुवाद प्रस्तुत किया. अभी हिन्दी पद्य रचना लिखकर कुशल-निर्देश में सर्वप्रथम प्रकाशित की है। संस्कृत भाषा को समझने वाले सीमित हैं: आशा है इससे अर्थ समझ कर भक्तामर-पाठी बन्धु अधिकाधिक लाभ उठावेंगे। यद्यपि श्वे० समाज में ४४ गाथाए प्रचलित हैं पर मैंने अष्ट-प्रातिहार्यों की पूर्णता के हेतु ४८ गाथाओं के ही पद्यानुवाद किये हैं। ] परिहास लायक हूँ सही श्रुत-ज्ञानियों के सामने । किन्तु भक्ति आपकी सुप्रयास को प्रेरक बने । मधु मास मुकुरित मंजरी के ही सशक्त प्रताप से । कोयल मधुर स्वर कूकती है मोहनी आलाप से ॥६॥ भव भ्रमण संचित पाप राशि रही आत्मा से जुड़ी। क्षण मात्र में हो स्तवन करते क्षीण जो छोटी वड़ी। निशि जगद्व्यापी तिमिर का ज्यों अंशुमाली उदय तें। तम नाश हो अविलंब उषाकाल प्रातः समय में ॥७॥ हरिगीत छन्द सुरेन्द्र भक्तों के मुकुटमणि से प्रभान्वित चरण है। तम पाप नाशक आदि जिनका नमन अशरण प्ररण है ।। संसार सागर डूबतों के एक मात्र आधार है। अतएव पद युग में नमन मेरा सम्यक आचार है ||१|| नलिनी दल जल-कण पड़े ज्यों भासते मुक्ता सही। रसहीन मेरे वाक्य भी प्रभु के गुणावलि युक्त ही।। सज्जन सुभक्त सुधीजनों के मन हरे निश्चय यही। उत्कृष्ट रचना पंक्ति में हो मान्यता अवश्य ही ॥८|| ११०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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