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________________ जानकर अत्यन्त आनन्द हुआ कि श्री भंवरलालजी नाहटा का अभिनन्दन हो रहा है। श्री नाहटाजी ने जो साहित्यसेवा की है वह बहुत काल तक याद रखने वाली है। न मालूम कितने नये ग्रंथों के ऊपर लेखकों की खोज उन्होंने अपने व्यापारी जीवन में व्यस्त रहकर भी की है. उसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। कई भण्डारों को उन्होंने टटोला और उनमें से रत्नों की खोज की है। आनेवाली पीढ़ी के लिये जो सामग्री उन्होंने जुटाई वह इतनी है कि उस पर कई विद्वान शोध करने जुट जाए फिर भी उसका अन्त आने वाला । नहीं है। एक ही व्यक्ति के इतने शोध-प्रबन्ध अन्यत्र दुर्लभ हैं। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।। -पं० दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद श्री भंवरलाल नाहटा की सेवाए बड़ी व्यापक है। उन्होंने जेन साहित्य को ही नहीं, जैन संस्कृति और जैन दर्शन को भी समृद्ध किया है। उनकी लेखनी बराबर गतिशील रहती है. कभी विश्राम नहीं लेती। उन्होंने अनेक विषयों पर साहित्य की रचना की है. आज भी कर रहे हैं । वस्तुतः वे मानते हैं कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । आत्मोन्नति के साथ-साथ लोक-मंगल के लिये भी उसे कुछ करना चाहिये। यही कारण है कि वे समाज की चेतना को जागृत करने के लिये अपने सारगर्मित विचार अपनी विशिष्ट शैली में देते रहे हैं। मुझे यह जानकर आश्चर्य-मिश्रित हर्ष हुआ कि प्राचीन लिपियों को पढ़ने की उनमें विलक्षण क्षमता है । इससे उनकी मौलिक सूझबूझ का स्पष्ट पता चलता है। श्री नाहटाजी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे असामान्य होने पर भी सापान्य हैं । वे निरभिमानी । हैं. विनम्र हैं, सादगी-प्रिय हैं और मधुर-भाषी हैं। अपनी विद्वता को उन्होंने कभी भार नहीं बनने दिया। सहज जीवन जिया है, आज भी वैसा हो जी रहे हैं। -यशपाल जैन सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली संसार में अधिकतर व्यक्ति ऐसे हैं जिनपर न सरस्वती की कृपा है और न लक्ष्मी की। कुछ एक सरस्वती के कृपापात्र होते हैं तो लक्ष्मी उसे विमुख रहती है. और जो लक्ष्मी के कृपापात्र होते हैं उनपर सरस्वती की कृपा नहीं होती। ऐसे उदाहरण अत्यन्त विरल होते हैं जब कोई व्यक्ति सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों का एक साथ कृपापात्र हो। ऐसे ही विरले महाभाग सज्जनों में श्रेष्ठिवर्य भंवरलाल नाहटा तथा उनके अनन्य सहयोगी एवं सगे चाचा स्व० अगरचन्द नाहटा रहे। दोनों को ही शिक्षा-दीक्षा अतिसाधारण, स्थानीय शाला की पांचवी कक्षा तक ही रही । पारिवारिक व्यापार व्यवसाय जन्मस्थान बीकानेर में ही सीमित नहीं था, बंगाल व आसाम पर्यन्त विस्तृत एवं पर्याप्त उन्नत रहता आया। दोनों ही उक्त व्यापारिक संस्थान के कर्मठ एवं सफल संचालक रहे । प्रायः नगण्य-सी शैक्षणिक पृष्ठ-भूमि और गार्हस्थिक एवं व्यवसायी व्यस्तताओं के रहते विविधरूपा एवं विपुल साहित्य-साधना के लिये अवकाश निकाल लेना २४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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