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भगवतीसूत्र में गौतम ने महावीर के सम्मुख दो प्रश्न उप- है। अतः जैनधर्म में समता को आत्मा या चेतना का स्थित किये-आत्मा क्या है और उसका साध्य क्या स्वभाव कहा गया है और उसे ही धर्म के रूप में परिभाहै? महावीर ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये थे वे जैन । षित किया गया है। यह सत्य है कि जैनधर्म में धर्मधर्म के हार्द को स्पष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा था। साधना का मूलभूत लक्ष्य कामना, आसक्ति, राग-द्वेष और कि 'आत्मा समत्व स्वरूप है और समत्व की उपलब्धि कर वितके आदि मानसिक असन्तुलनों और तनावों को समाप्त लेना यही आत्मा का साध्य है। आचारांगसूत्र में भी कर अनासक्त और निराकुल वीतराग चेतना की उपलब्धि समता को धर्म कहा गया है। वहां समता को धर्म
माना गया है। आसक्ति या ममत्व बुद्धि का लक्ष्य राग
और द्वेष के भाव उत्पन्न कर व्यक्ति को पदार्थापेक्षी इसलिए कहा गया है कि वह हमारा स्व-स्वभाव है और वस्तु स्वभाव हीधर्म है-वत्थु सहावो धम्मो। जैन दार्शनिकों बनाना है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता के अनुसार स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ
है। जबकि अनासक्ति या वीतरागता व्यक्ति को 'स्व'
में केन्द्रित करती है । दूसरे शब्दों में जैनधर्म में वीतरागता है । जो हमारा मूल स्वभाव और स्वलक्षण है वही हमारा
की उपलब्धि को भी जीवन का परम लक्ष्य घोषित किया साध्य हो सकता है। जैन परिभाषा में नित्य और
गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में समभाव में अथवा निरपवाद वस्तु धम ही स्वभाव है। आत्मा का स्व-स्वरूप साक्षी भाव में स्थित रह सकता है। जो चेतना समभाव
और आत्मा का साध्य दोनों ही समता है। यह बात या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकल दशा जीव-विज्ञान की दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। आधुनिक को प्राप्त होती है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती जीव-विज्ञान में भी समत्व के संस्थापन को जीवन का है वही शाश्वत सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म . लक्षण बताया गया है। यद्यपि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में आत्मोपलब्धि या स्वरूप उपलब्धि को जो जीवन का 'समत्व' के स्थान पर 'संघर्ष को जीवन का स्वभाव लक्ष्य माना गया है वह वस्तुतः वीतराग दशा में ही सम्भव बताता है और कहता है कि 'संघर्ष ही जीवन का नियम है और इसीलिए प्रकारान्तर से वीतरागता को ही जीवन है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है।' किन्तु का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम यह एक मिथ्या धारणा है। संघर्ष सदैव ही निराकरण समभाव या साक्षीभाव है। यही समभाव हमारा वास्तका विषय रहा है। कोई भी चेतन सत्ता संघर्षशील विक स्वरूप है। इसे प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का दशा में नहीं रहना चाहती। वह संघर्ष का निराकरण परम लक्ष्य है । करना ही चाहती है। यदि संघर्ष निराकरण की वस्तु है तो उसे स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। संघर्ष साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद : मानव इतिहास का एक तथ्य हो सकता है किन्तु वह मनुष्य के विभाव का इतिहास है स्वभाव का नहीं। जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही चैत सिक जीवन में तनाव या विचलन पाये जाते हैं किन्तु आत्मा से अभिन्न माने गये हैं। आत्मा ही साधक वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया है, आत्मा ही साध्य है और आत्मा ही साधना मार्ग है । सदैव ही उन्हें समाप्त करने की दिशा में प्रयासशील है। अध्यात्मतत्वालोक में कहा गया है कि आत्मा ही संसार चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यही है कि वह बाह्य और है और आत्मा ही मोक्ष है। जब तक आत्मा कषाय और आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विक्षोभों इन्द्रियों के वशीभूत है वह संसार है किन्तु, जब वह . को समाप्त कर समत्व को बनाये रखने का प्रयास करता इन्हें अपने वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता
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भगवती। आचारांग, ८/३१ ।
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