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________________ है ।।१ आचार्य अमृतचन्द्रसूरि समयसार की टीका में सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधनामार्ग बन जाते लिखते हैं कि 'पर द्रव्य का परिहार और शद्ध आत्मतत्व हैं। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान. सम्यक की उपलब्धि ही सिद्धि है। १२ आचार्य हेमचन्द्र ने भी सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक है कि 'कषाय और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन - उनको विजित करनेवाजी आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा और सम्यक् चारित्र के रूप में साधनामार्ग बन जाते हैं। मुक्त कहा जाता है।'१३ वस्तुतः आत्मा की वासनाओं इस प्रकार साधनामार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य से युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं और विकल्पों कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मोक्षकामी को आत्मा को जानना से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष है। जैन अध्यात्मवाद चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करनी चाहिए और आत्मा का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर है। धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया की ही अनुभूति (अनुचरितव्यश्च ) करना चाहिए । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का और योग सब अपने आपको पाने के साधन हैं। क्योंकि पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था यहाँ आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, त्याग में है, संवर में और सिद्ध अवस्था में समान ही है। साधक और सिद्ध है और योग में है।' १४ व्यवहार नय से जिन्हें ज्ञान, दर्शन अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं और चारित्र कहा गया है, वे निश्चय नय से तो आत्मा को योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीज ही हैं। वृक्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त त्रिविध साधनामार्ग: कर लेता है वैसे ही आत्मा भी परमात्म दशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनाहै। जैनधर्म के अनुसार अपनी ही बीजरूप क्षमताओं मागं बताया गया है। तत्वार्थ सूत्र में सम्यक ज्ञान, को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति है। जैन साधना । करना ही मति है। माना सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया है।१५ 'स्व' के द्वारा 'स्व' को उपलब्ध करना है। निज में रात जान सम्यक दर्शन, उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक ज्ञान, सम प्रसुप्त जिनत्व को अभिव्यक्त करना है। आत्मा को ही सम्यक चारित्र और सम्यक तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है। इस प्रकार आत्मा का भी विधान है,१६ किन्तु जैन अचार्यों ने तप का का साध्य आत्मा ही है। अन्तर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधना मार्ग को ही मान्य किया है। जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनाहै। हमारी चेतना के ही ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः त्रिविध अध्यात्मतत्वालोक। समयसार टीका। योगशास्त्र। समयसार । तत्त्वार्थ सूत्र, १/१ । उत्तराध्ययन, २८/२। १० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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