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________________ उनकी उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अपितु 'पर' अर्थात पदार्थ में सामाजिक बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत केन्द्रित रहती है। वह 'पर' में स्थित होता है। यह जैन अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या 'पर' में स्थित होना ही भौतिकका केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैन दर्शन के वाद का मूल आधार है । जैन दार्शनिकों के अनुसार ‘पर' अनुसार सुख-दुःख आत्मकृत हैं ।५ अतः वास्तविक आनन्द अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती है। को परम मूल्य मानना यही भौतिकवाद या मिथ्या दृष्टि उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'आत्मा का लक्षण है । आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही पदार्थ-केन्द्रित न होकर आत्म-केन्द्रित होती है। वह आत्मा अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है, सुप्रतिष्ठित को ही परम मूल्य मानता है और स्वस्वरूप या स्वभावदशा अर्थात् सदगुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुष्प्रतिष्ठित की उपलब्धि को ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है। अर्थात दगणों में स्थित आत्मा शत्र है ।।६ आतुरप्रकरण इसे ही जेन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यक दृष्टि कहा नामक जैन ग्रन्थ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद कहा गया है कि 'शान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्म- सम्यक्दृष्टि है । तत्व ही मेरा है, शेष सभी बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध आत्मा का स्वरूप एवं साध्य : हुए हैं। इसलिए वे मेरे अपने नहीं हैं। इन संयोगजन्य यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि उपलब्धियों को अपना मान लेने या उन पर ममत्व रखने जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप क्या है ? आचारांग सूत्र के कारण ही जीव दुःख-परम्परा को प्राप्त होता है अतः में आत्मा के स्वरूप लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा उन सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा गया है कि 'जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विसर्जन कर देना चाहिए। संक्षेप में जेन अध्यात्मवाद विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में के अनुसार देह आदि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति स्थित होना ही स्व-स्वभाव में स्थित होना है। आधुनिक ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल उत्स है। मनोविज्ञान में चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञानात्मक, वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदाथे के स्थान पर आत्मा को भावात्मक और संकल्पात्मक। उसमें भावात्मक और अपना साध्य मानता है, वहाँ भौतिकवाद में पदार्थ ही संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और कर्त्ताभाव के परम मूल्य बन जाता है। अध्यात्मवाद में आत्मा ही सूचक हैं। जब तक आत्मा कर्ता ( doer ) या भोक्ता परम मूल्य होता है। जेन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के (enjoyer ) होता है तब तक वह स्व-स्वरूप को उपलब्ध लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक नहीं करता है क्योंकि यहां चित्त विकल्प या आकांक्षा बनी मानता है। उसके अनुसार ममता के विसर्जन से ही रहती है। अतः उनके द्वारा चित्त-समाधि या आत्मोसमता (equanimity ) का सर्जन होता है। पलब्धि संभव नहीं है। विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि: भी ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुल समाधि की जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोपलब्धि का अवस्था में स्थित कर दुःखों से मुक्त कर सकता है । एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक एक अन्य दृष्टि से जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप व्यक्ति में ममत्व बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक लक्षण समत्व (equanimity ) भी बताया गया है। ५ उत्तराध्ययन, २०३७ । ६ वही। ७ आतुर प्रकरण, २६, २७ । ' आचारांग, ५/१०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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