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परम्परा में दश लक्षण पर्व है जो भाद्रपद में मनाये जाते में लोक मंगल या लोक कल्याण का कोई स्थान ही नहीं हैं। इन दिनों में जिन-प्रतिमाओं की पूजा, उपवास है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना आदि व्रत तथा धर्म-ग्रन्थों का स्वाध्याय यही साधकों की की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है। किन्तु दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्यों के दिनों में जहाँ इसके साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का की विशिष्ट साधना की जाती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा साक्षी है । १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म-पर्यावलोचन वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्गदर्शन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन करते रहे। जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर- सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के विरोध के लिए आत्म-पर्यावलोचन (प्रतिक्रमण) किया सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है । जाता है एवं प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। इस दिन व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है। जब तक व्यक्ति नहीं शत्रु-मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता। जब तक दिन जेन साधक का मुख्य उद्घोष होता है-'मैं सब व्यक्ति के जीवन में नेतिक और आध्यात्मिक चेतना का जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था करें। सभी प्राणी वर्ग से मेरी मित्रता है और किसी से और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्ति कोई वैर-विरोध नहीं है।' इन पर्व दिनों में अहिंसा का अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता पालन करना और करवाना भी एक प्रमुख कार्य होता है। वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोक-सेवक प्राचीन काल में अनेक जैनाचार्यों ने अपने प्रभाव से और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में रहें यह जैन आचार-संहिता का आधारभूत सिद्धान्त घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक अष्टान्हिका पर्व, श्रत पंचमी तथा विभिन्न तीर्थंकरों के ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों जो संगठन या समुदाय बनते हैं वे सामाजिक जीवन के को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में सच्चे प्रतिनिधि नहीं है। क्या चोर, डाकू और शोषकों
वत रखा जाता है और जिन-प्रतिमाओं का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति का पर्व भी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। सकती है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है कि
भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के जैन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण के प्रश्न :
रक्षण एवं करुणा के लिए है।३० जैन साधना में अहिंसा,
सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के जो पांच व्रत माने यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यास मागी धर्म है। उसकी गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं हैं, वे सामासाधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर जिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्म-शुद्धि के साथ ही दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शद्धि का प्रयास भी हैं।
० प्रश्नव्याकरण, २/१/२ ।
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