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________________ लाया नहीं है पूर्व के सत्कर्म अपने साथ में तो पेट भरने के लिये कैसे बचेगा हाथ में? दिवस भर है कष्ट करता कठिन श्रम बिन धर्म के रात में निद्रा न पता, फल मिले दुष्कर्म के ॥३८॥ और अन्तमें प्राकृत भाषाके एकमात्र अलंकार शास्त्र : 'अलंकार दप्पण' नामक-ग्रन्थ जैसलमेरके भंडारसे ताडपत्रीय प्रतिलिपि में प्राप्त हुआ था। श्री अगरचन्दजी के अनुरोध पर प्रतिभाशाली शारदा के वरदपुत्र ने हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ संस्कृत छायानुवाद कर इस दुर्लभ ग्रन्थ की महत्ता पर चार चाँद लगा दिया जो विद्वानों के लिये स्पर्धा की वस्तु है। एक उदाहरण इस प्रकार है संखलवमा सगस्स व कणअ-गिरी कंचन-गिरिण महिअलं होउ। महि बीढ़स्सवि भरधरणपच्चलो तह तुमं चेअ॥ शृंखलोपमा स्वर्गस्ववकनकगिरि कंचनगिरिणैव इव महीतलं भवतु । महीपीठस्यापि भारधरणणप्रक्तस्तथा त्वं चैव ।। (यह) भूतल स्वर्ग की तरह कनकगिरि और कंचनगिरि का-सा (पीला) हो जाय। (क्योंकि ) तुम ही महीपीठ के भू-भार को धारण करने में समर्थ हो । इस प्रकार अनेकानेक संस्मरण आपके सान्निध्य में मुझे सुनने को मिले हैं जिन्हें अंकित कर अपने विषय को बढ़ाना उचित नहीं समझता। गद्दी पर बैठकर क्षण में पुस्तकावलोकन, प्रतिलिपिकरण, निवन्धलेखन तथा क्षण में व्यापारिक सम्बन्धों का रक्षण व पोषण न जाने कितनी बार देखा है। कोई आयाम नहीं. प्रयास नहीं, स्वाभाविक गति से लेखनी बही-खातों पर चलते चलते साहित्य लेखन में व्यस्त हो जाया करती है। धन भी है धर्म भी, ज्ञान भी है विवेक भी, राग भी है विराग भी, कितनी समरसता है एक रसता में भी, आश्चर्य होता है। नाम की भूख नहीं, केवल कर्तव्य की प्रेरणा है। सम्भवतया इसीलिये इनकी सज्जनता का फायदा उठाने वाले कितने ही मान्य विद्वानों ने इनकी कितनी अज्ञात कृतियों को अपने सन्मान का विषय बनाया है । प्रसंगवश एक उदाहरण देने में मुझे संकोच नहीं है। प्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशारद पुरातत्त्ववेत्ता डॉ० बासुदेवरशरण अग्रवाल. जो इनके साहित्य के समर्थक व सहायक भी थे. श्री भंवरलालजी की दो कृतियाँ-कीतिलता' तथा 'द्रव्य परीक्षा' के साथ न्याय नहीं कर सके । अवधी भाषा की कृति, कीर्तिलता का अनुवादक भंवरलालजी ने डॉ० साहब को वह ग्रन्थ देखने के लिये भेजा था, पर अग्रवाल साहब ने इनका नाम वहां से लोप कर दिया। यही बात पुरातत्त्वसम्बन्धी द्रव्यपरीक्षा के विषय में भी कथ्य है । इस अमूल्य ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद कर अपने नाम से छपा डाला। उनके दिवंगत होने पर शायद ये दोनों पुस्तकें बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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