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रखी गई हैं, जिसे उनके पुत्र ने लौटाई है। शायद विज्ञापन ही व्यक्तित्व की सच्ची परख है और इनके पास विज्ञापन नहीं। आप अगरचन्दजो के अनुरोध के वशवद रहें ।
भंवरलालजी का जीवन सीधासादा है। आपका अन्तर जितना निर्मल व पवित्र है उतना ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन भी। धोती, कुर्ता तथा पगड़ी यहो सामान्य परिधान है। व्यवहार कुशल, वाणी सुखद, जीवन . कर्मठ और कृति सुन्दर । यही कारण है कि सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक सभाओं, सभ्य व संस्कृत विचारगोष्ठियों व अन्यान्य संस्थाओं से आपका जीवन सम्बन्ध है। ऐसे ही पुरुषों के लिये शायद यह उक्ति चरितार्थ है--
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
विषम परिस्थिति में धैर्य आपकी विशेषता है। धन है. यश है, पर अभिमान नहीं, अभिरुचि नहीं, कोई व्यसन नहीं, भाषणपटुता और लेखन सिद्धि का विचित्र समायोग है। अतः भतृहरिजी के शब्दों में आप महान् आत्माओं की सिद्ध प्रकृति के प्रतीक हैं। लोकमंगल को लालसा है और पर-जन्म को कृतार्थ करने की कामना । हृदय में विश्वास है और परमशक्तिमान में श्रद्धा तथा भक्ति । व्यतीत आपकी स्मृति में है और सजग वर्तमान हाथों में, फिर नियति के लिए अधिक चिन्ता नहीं । जैन धर्म, जैन साहित्य, जैन सभा, जैन सम्मेलन आपके बिना अपूर्ण हैं । आपके सार्वजनिक जीवन के लिये इतना ही कहना पर्याप्त है।
अन्त में जैसा मैंने लिखा है किसी भी व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिये जितनी दृष्टि अपेक्षित है उसके मानदण्ड की उतनी विभिन्न विधायें हैं। मेरा अपना आकलन पूर्ण है, मैं स्वीकार नहीं कर सकता। वशिष्ठजी की बुद्धि महासागर के समान भरतजी के व्यक्तित्व की महिमा के तौर पर अबला की तरह खड़ी जैसे नौके व तट का चिन्ह नहीं पा सकी उसी प्रकार कोई भी चिन्तक इस महान् गम्भीर व्यक्तित्व की थाह नहीं पा सकता। मैंने तो न्यूटन की तरह इस ज्ञान-गरिमा के सागर तट पर बच्चों की तरह खेलते हुए कुछ कंकड़िया ही बटोरी हैं। हर तरंगों को पहचानने की शक्ति भला तट पर खड़े रहने वाले कायरों को कैसे सुलभ हो सकती है ? मैं तो मात्र सीपी से सन्तुष्ट हूँ. डूबने की शक्ति नहीं, फलतः मोती के आबका दर्शन ही कैसे होगा? यह भार तो मैंने सक्षम व साहसी व्यक्तियों पर ही छोड़ दिया है। पाठकों की जिज्ञासायें और अधिक जानने की होंगी पर उनसे मेरा विनम्र निवेदन होगा कि इनकी कृतियों के माध्यम से इन्हें जानने का प्रयास करें: एक बात मैं अवश्य कहूँगा कि भंवरलालजी ने वही किया है जो इनकी चेतना ने स्वीकृति दी है और वह करगे जिसे इनका अपना निर्मल मन स्वीकार करेगा। - इनमें अब भी कुछ कर गुजरने की साध है और ७५ वर्ष की अवस्था में भी इनमें जीवनशक्ति का अभाव नहीं है । अतः कुछ नवीन, कुछ सुन्दर, कुछ सत्य तथा कुछ शिव देखने, समझने व ग्रहण करने की हमारी कामनायें प्रतीति अवश्य चाहेंगी। परमात्मा आपको चिरायुष्य करें | जैन समाज कृतज्ञ होगा, सृजन को गति मिलेगी और साहित्य व समाज आपकी अमरता पर गर्व करेगा। शेष अचिन्त्य है. और शास्त्र कहता है "अचिन्त्या खलु ये भावाः न तांस्तकेंण योजयेत् । सुतराम् !
ज्ञाने गतिर्मतिवि बुद्धिोकारंजने । संसिद्धिस्तेन श्रीवृद्धिरायुर्विद्या यशो बलम् ।।" इत्यलम्
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