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की प्रार्थना से महिमराज ( मानसिंह) वाचक को काश्मीर विजय-यात्रा में साथ भेजा तो कर्मचन्द्रादि श्रावक भो साथ थे। कर्मचन्द्र मंत्री-वंश-प्रबन्ध में लिखा है कि
शाहि निर्दिष्ट सावध व्यापार परिशीलनात् । मुनीनामावताचार विलोपो भवतादिति ।।
औषधिमंत्र तंत्रादि निपुणं दत्तवान समं ।
पंचाननं महात्मानां विनेयं मेधमालिनः ।। साध्वाचार की रक्षा के लिए ही महात्मा मेघमाली के शिष्य पंचानन को साथ में दिया था जो वादशाह की सावद्य-संभव आज्ञा को परिशीलन कर सके ।
जब वे काश्मीर यात्रा से लौटे तो बादशाह ने कहा--काश्मीर के शीत प्रधान पथरीले पहाड़ी मार्ग में नंगे पाँव पैदल यात्रा में इनका कठिन चारित्र देखकर मैं वड़ा प्रभावित हुआ हूँ-ये चारित्र पालन में दुर्द्धर्ष सिंह सदृश शूरवीर हैं। अतः इन्हें आचार्य-पद देकर इनका नाम जिनसिंहसूरि रखिए। ये सब बातें युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ को पढ़ने से ध्यान में आ जाएंगी। तत्कालीन काव्य-गीतादि में सर्वत्र उन्हें पंच महाव्रतधारी और शुद्ध साधुचर्या वाले लिखा है। श्री पूज्य और यति शब्द का प्रयोग उस काल की चर्यानुसार सही था। आज की बात छोड़िए। उस समय तो 'करेमि भंते जावज्जीव' ही उच्चारण करते थे। आज के श्रावकों की भाँति 'जावनियम' नहीं । समयसुन्दर जी शुद्ध साध्वाचार में थे । सं० १६८७ में गुजरात के दुःकाल में थोड़ा पिण्डविशुद्धि आदि में दोप लगने के कारण उन्होंने १६९१ में क्रियोद्धार किया था । जिसका वर्णन उनके गीत में मिलता है। आप समयसुन्दर जी को निःसंकोच पंचमहाव्रतधारी साधु लिखिए । उनकी शिष्य परम्परा भी त्यागी थी। उनके सौ सवा सौ वर्ष बाद शिथिलता क्रमशः आई । एकाएक तो आई नहीं थी । आप ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आदि ध्यान से देखेंगे तो सर्द वृतान्त स्पष्ट हो जायेंगे।
तपागच्छ में सत्यविजयजी पन्यास, विनयविजय जी, यशोविजय जो, पद्मविजय जी, उत्तमविजय जी आदि सधचर्या में थे। उन्होंने क्रियोद्धार किया। उस समय स्वरता में भी देवचंद्र जी, जिनहर्षजी आदि तथा समयसन्दर जी के शिष्य परम्परा के साध विनयचन्दजी आदि अहमदावाद में विचरण करते थे। सं० १८०० के बाद भो जिनलाभसरि जी आदि का पेदल विहार अधिकतर था। जिनभक्तिसूरिजी के शिष्य प्रीतिसागर, अमृतधर्म, क्षमाकल्याणजी आदि हुर जो साध्वाचार का पालन, क्रियोहार आदि करते रहे। समय-समय पर यद्यपि शैथिल्य आया पर त्याग वैराग्य वाले क्रियोद्धारी भी हुये। भिन्न-भिन्न शाखाओं में सभी क्रियोद्धारक शुद्ध साध्वाचार वाले रहे हैं। देवचन्द्रजी आदि आचार्य-शाखा में तो पिप्पलक में शिवचन्द्रसूरि (जिनचन्द्रसूरि ) हुए जिनका रास ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में देखिये। खंधकमुनि की तरह उनकी शरीर की चली एमात के नवाव ने उतार दी पर कितनी समता से परिषह सहा । वे शुद्ध पंचमहाव्रतधारी ही थे।
आपने चौथे पाट जिनचंद्रसूरि नाम देने आदि को परम्पर। का लिखा है। उन शुद्ध पंचमहाव्रतधारियों में ही इन दो सौ ढाई सौ वर्षों में कुछ शिथिल होने पर भी तपागच्छ और खरतरगच्छ में भी श्री पूज्य ही गच्छ१०]
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