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होता। संबोध-प्रकरण में हरिभद्रसू रेजो ने लिखा है-यतिजन गंडे-ताबीज करते. अपने शिथिलाचारी गुरुओं के चरण आदि प्रतिष्ठित करते. साध्वाचार के विपरीत आचरण करते-मैं अपने शिर की शूल किसके आगे कहूँ।
जब शिथिलता बढ़ी गुजरात में मठाधीश हो गये । राजस्थान तथा दिल्ली प्रदेश में भी हुए, पर गुजरात में, उनका साम्राज्य था, वे राजगुरु थे। सुविहित मुनिजन का वहाँ प्रवेश ही नहीं था । ऐसे समय में बौद्धधर्म जिस प्रकार हीनयान, महायान, वज्रयान आदि में विभक्त होकर भारत भूमि से लुप्त हो गया, उसी प्रकार जैनधर्म की दशा होती । यद्यपि चैत्यवासियों में विद्वान तो थे पर बिना चारित्रबल के पतनोन्मुखता थी । खरतरगच्छ के सुविहित आचार्यों के प्रताप से जैन शासन वच पाया । वर्द्धमान जिनेश्वर सूरिजी ने पाटण में दुर्लभराज की सभा में उन मठाधीशौं को हराकर गुजरात में वसतिवास-सुविहित और त्याग • मार्ग की परम्परा कायम की । चैत्यवास में जो आत्मार्थी यतिजन थे, खरतरगच्छ की सुविहित परम्परा में आकर. उपसंपदा ग्रहण की। कुछ त्यागी दूसरे गच्छों में भी गए, पर उन्होंने सुविहित मार्ग में उपसंपदा नहीं ली थी। हम जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि के चरित्र में देखते हैं, कितना त्यागमय जीवन था । उनके पास आकर जो चैत्यवासी दीक्षित हुए, उन्हें स्पष्ट कह दिया हमारे यहाँ तुम्हारे निमित्त-शास्त्रादि के विविध प्रयोग नहीं चलेंगे । उनके तो सूरिमंत्रादि के प्रभाव से ही वचन सिद्धि थी। इसीसे स्तोत्रादि का प्रभाव चरित्रादि में देखा जाता है । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में विस्तृत जीवनियाँ है जो प्रामाणिक है और खरतरगच्छाचार्यों के चरित्र पर विशद प्रकाश डालती है। जो लोग दादा साहब को यति कहते हैं, वे भ्रान्ति फैलाते हैं। यदि उपर्युक्त दस नाम श्रमण-पर्याय के कहें तो हम उन्हें उसी प्रकार यति मान सकते हैं । वैसे सभी गच्छ के त्यागी आचार्य यति कहलाते थे, श्रीपूज्य कहलाते थे। अकबर के फरमान में हीरविजय सूरिजो को भी यति कहा है। श्री पूज्य' शब्द उस काल में सर्वोच्च पद था । गच्छ में उनके नीचे कई आचार्य उपाध्याय होते । श्री पूज्य एक तरह से युगप्रधान पद था। इसी आशय से युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में सबको श्री पूज्य लिखा है पर भ्रान्ति न हो। वर्तमान के पदगत आचार में वह गरिमा नहीं। इसलिए हमने इतिहास में 'श्री पूज्य' का 'पूज्य श्री शब्द प्रयोग किया है। मुसलमानो काल में कारण वश यतिजनों में शिथिलता आई. पर तपागच्छ और खरतरगच्छ में क्रियोद्धार का अर्थ वही है त्याग प्रधान मार्ग स्वीकार, शिथिलाचार का परिहार
ओर यत्किचित परिग्रहादि से सर्वथा मुक्ति । उनके साध्वाचार के नियम युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ में हमने प्रकाशित किया है, जिन्हें देखने से सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। जिनमाणिक्यसूरिजी ने दादा साहब की देरावर यात्रान्तर के वाद क्रिया-उदार करने का संकल्प किया था। पर उनके पदयात्रा, चौविहार आदि सभी साध्वाचार की ही क्रियाएँ थीं। पिपासा-परिषह से ही उनका देह-विलय हुआ। क्योंकि रात्रि में पानी मिलने पर भी उन्होंने चौविहार-व्रत भंग नहीं किया। उनके स्वर्गवास के अनंतर आचार्यपदारुढ़ होकर श्री जिनचन्द्रसूरिजी जैसलमेर से बीकानेर पधारे । तब ३०० यतियों में से त्याग-वैराग्य वाले १६ शिष्य उनके साथ आये। बाकी को यति नाम रखने का भी अधिकार नहीं रहा। वे मथेरण ( माथे पर ऋण-पगड़ी पहनाकर ) गृहस्थ बना दिये गए। यह घटना उनके साध्वाचार के लिए अच्छा उदाहरण है।
चौथे पाट पर जिनचंद्रसरिजी नाम देने की परिपाटी त्यागमार्ग की ही परम्परा थी। हाथी, घोड़ा. चामर, छत्र आदि का लिखा सो वह तो श्रावक लोग उनसे 'सामेले' में ले जाते थे। उनका उनसे कोई संबंध नहीं था। अकबर
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