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करोत विरहिणी के विरह की भाँति जाते-आते दोनों तरफ काटता ही रहता है । विष्णुपुर के ताँती लोग वस्त्र वुनते हैं. ठठेरे-कसेरे बर्तन बनाते हैं । यहाँ सराक बन्धुओं के लगभग ३० घर होंगे। सराकों के घरों में खड्डियाँ लगी हैं और वे सूत-वस्त्रादि का व्यवसाय करते हैं।
सिंह ने निर्माण कराया था। आश्चर्य तो यह है कि इतने विशाल मन्दिर में कहीं इंच भर भी जगह शिल्पाकृति से रिक्त नहीं छोड़ा । जोड़ा शिव मन्दिरकृष्ण बलराम मन्दिर रघनाथसिंह द्वितीय द्वारा स्थापित है। जोड़ बङ्गला मन्दिर भी प्रशस्त कोरणी युक्त है। इसकी छत का निर्माण दो संलग्न दुचालों वाले बङ्गले की भाँति है । राधा-श्याम मन्दिर सन् १६५८ में राजा चतन्यसिंह द्वारा प्रतिष्ठापित है । विभिन्न पौराणिक और अवतार चरित्रादि की शिल्प समृद्धि अत्यन्त प्रेक्षणीय है । सन् १६५८ में लाल जी मन्दिर की प्रतिष्ठा राजा श्री वीरसिंह ने करवाई थी।
सतरहवीं शती के उत्तरार्द्ध में राजा वीरसिंह ने पत्थरों द्वारा प्रवेशद्वार का निर्माण करवाया, दुर्ग-प्रवेश के लिये पूर्वकाल में यही एक प्रवेश द्वार था। आगे चलने पर एक प्रस्तरमय तिमंजिला रथ आता है। प्रस्तरमय रथ की प्रथा बङ्गाल, बिहार, उड़ीसा के अतिरिक्त सुदूर मैसूर राज्य के हम्पी तक में पाई जाती है। हम्पी का रथ वड़ा ही सन्दर है और इसी प्रकार कोणार्क का भी । रथयात्रा की प्रथा एक ऐसी प्राचीन प्रथा है जिससे लोगों को घर वैठे भगवान् के दर्शन हो जाते थे। वसुदेव हिण्डी नामक प्राचीन महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ में इसे अति प्राचीन काल से चली आयी परम्परा बतलायी गयी है।
मदनमोहन मन्दिर की प्रतिष्ठा सन् १६९४ में राजा दुर्जनसिंह ने करवाई थी। यह भी बङ्गाल की तत्कालीन टाली की कोरणी ( Terracota) का सुन्दर नमूना है। मल्लेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण भी सन् १६२२ में वीर हम्मीरसिंह ने करवाया था।
विष्णपुर में शंख-शिल्पियों का काम भी खूब जोरों पर है। सैंकड़ों घर इसी व्यापार-उद्योग से अपने परिवार का पालन करते हैं। शंख को प्रस्तर-शिलाओं पर घिस कर अर्द्ध-चन्द्राकार क्रकच (करोत) से अंगूठी. सांखा, चूड़ी आदि विविध प्रकार की वस्तुए' तैयार करते हैं। शंख का
विष्णुपुर से ता०२५ शुक्रवार को हम लोग बस द्वारा बाँकुड़ा आये। जिले का मुख्य नगर होने से बाँकुड़ा एक बहुत बड़ा नगर है। सुख-सुविधापूर्ण मारवाड़ी धर्मशाला, नूतनगंज में ठहरे और बीकानेर के ही एक अनुभवी सहृदयी ब्यासजी के सुप्रवन्ध में दो दिन रहे । भोजनोपरांत जीपलेकर वहाँ से हम हाड़मासरा गये । वहाँ गाँव के अन्त में एक पत्थर के शिखरयुक्त छोटा मन्दिर देखा जिसमें वल्मीक के ढेर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। इनके पीछे जङ्गल में एक पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा खड़ी थी. जिस पर ग्राम्य-जन कभी-कभार सिन्दूर आदि की टीकी लगा देते होंगे। पर आश्चर्य है कि एक दुकानदार ने हमें जैन मन्दिर बतलाते हुए इस स्थान पर पहुंचा दिया। बहुलारा वाली प्रतिमा की माँति इस प्रतिमा के परिकर में अष्टग्रह, महाप्रातिहार्य, धरणेन्द्र-पद्यावती और बिम्ब निर्माता युगल की सुरुचिपूर्ण कलाभिव्यक्ति प्रेक्षणीय थी। हाडमासरा से हम लोग जीप में तत्काल लौट आये।
दूसरे दिन ता० २६ को प्रातः काल हम रिक्शा द्वारा वाँकुड़ा धर्मशाला से 'इकतेश्वर महादेव गये। वहाँ इसकी वड़ी ख्याति है। मन्दिर के बाहर नारियल, प्रसाद, मिष्ठान्न की दुकानें हैं और पण्डे लोग खड़े रहते हैं। मन्दिर में कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर तल घर में जमीन पर रहे हुए एक स्वाभाविक त्रिकोण से लम्बे पाषाण-खंड के दर्शन हुए। कहा जाता है कि यहाँ भगवान शंकर का यही रूप है। इस चमत्कारी स्थान पर भक्त लोग 'धरणा देकर सो जाते है और अपने कार्यसिद्धि का वरदान पाकर ही लौटते हैं. ऐसा भी कहा जाता है।
वाँकुड़ा से बस द्वारा हम गौरावाड़ी गये। वहाँ से
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