SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाम की ख्याति से परिचित हो गया था पर उन दिनों केवल जिनालय दर्शन के अतिरिक्त आपसे साक्षात्कार करने का केई प्रसंग नहीं था। ४७ वर्ष पूर्व जब साहित्य में रुचि जागी तो कविवर समयसुन्दर की रचनाओं के संग्रह के संदर्भ में आपके यहाँ जाना अनिवार्य हो गया. क्योंकि श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने कविवर की 'पाप छत्तीसी' नाहरजी के संग्रह में होने का उल्लेख किया था। मैं भाई मोहनलाल नाहटा के साथ सीधा कुमारसिंह हॉल में जा पहुंचा। दरवान ने कला भवन खोल दिया और हम लोग प्रदर्शित चित्रादि सामग्री को बारीकी से देखने में व्यस्त हो गए। थे ड़ी ही देर हुई होगी कि सौजन्यमूर्ति नाहरजी स्वयं आ पहुँचे और सम्मानपूर्वक हमें बैठाकर काफी देर तक बातचीत की और दरवान को हमारे आने की सूचना न देने के लिए कड़ा उपालंभ दिया । तदुपरान्त उन्होंने स्वयं समस्त महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का परिचय कराया और मुझे सप्ताह में एकबार अवश्य आने का आग्रह-पूर्ग आदेश दिया । वह पाप छत्तीसी' तो हमें पूर्व प्राप्त 'पाप आलोयणा छत्तीसी' ही निकलो पर उस प्रसंग को लेकर वे अनेकशः याद दिला दिया करते थे कि आप 'पाप छत्तीसी' के प्रसंग से हमारे मित्र हुए हैं। जाता । समव्यसनी होने के कारण नई-नई जानकारी प्राप्त होती और हमें भी उनके जैसा संग्रहालय खड़ा करने का शौक लग गया। हमारा स्वप्न साकार हुआ और उन्होंने हमें संग्राहक बना डाला। उनके यहाँ जाने पर दोपहर में जलपान तो अवश्य ही करना पड़ता यद्यपि हम दो बार से तीसरी बार भोजन नहीं करते थे पर उनके सप्रेम आदेश को अस्वीकार करने का कभी साहस नहीं कर सका। काकाजी अगरचन्दजी जैसे निवृत्ति प्रिय और अल्प आवश्यकताओं पर निर्भर रहनेवाले व्यक्ति को भी उनके साथ फल और जलपान में शामिल होना पड़ता था। यदि कभी अस्वीकृत कर दी तो कहते किघबड़ाइए मत, हम अभी बीकानेर नहीं आने वाले हैं। आप संकोच क्यों करते हैं ? हम से कुछ जवाब देते नहीं बनता। वे एक तल्ले के कमरे में बैठते थे. कुर्शी-टेबुल पर नहीं पर गद्दे पर आराम से बैठते. हमेंभो तकिया अवश्य लगाना पड़ता। धनिया,सुपारी और पान की डिबिया सामने पड़ी रहती। उनके यहां जाकर हमें मेंहमान की भाँति नहीं पर घरके सदस्य की भाँति निःसंकोच आराम के साथ बैठना पड़ता । बड़े-बड़े विद्वानों ने उनकी मिलनसारिता, आत्मीयता, कलाप्रियता, अतिथि सत्कार और सौजन्यादि गुगों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आत्मीयता और अतिथि सत्कार : नाहरजी के साथ जब से हमारा साक्षात्कार हुआ, वे वृद्ध वयोन्मुखी थे। पर उनका उत्साह युवकों जैसा था। कला पारखी होने के साथ-साथ मनुष्य की परीक्षा में भी उनकी दृष्टि पैनी थी। विद्वानों का आवागमन आपके यहाँ बराबर रहता था और उन्हें अभीप्सित विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त करवाकर आपको परम संतोष होता था। नाहरजी का प्रेम हमें हफ्ते में एकबार-रविवार को तो आकृष्ट कर ही लेता। वे अपने अनुभव बताते, आये हुए पत्रों की फाइल सामने रख देते, इस प्रकार उनके साथ हमारा बहुत सा समय वार्तालाप और निरीक्षणादि में बीत सौजन्य : हमारी शिक्षा और ज्ञानरुचि की ओर लक्ष्य कर वे कहते कि आपने पढ़ी-पढ़ाई अंग्रेजी भी भुला दी. जिसकी आज के युग में बड़ी आवश्यकता है। यदि एक दो महीना हमारे पास रहें तो आपको इसका पर्याप्त ज्ञान हो सकता है। आप तो बड़ाबजार छोड़ कर यहाँ आते ही नहीं, जब कुछ दिनों से आते हैं तो वार्तालाप में ही समय बीत जाता है, काम तो थोड़ा ही हो सकता है। यहाँ दो तीन मास बराबर रहिये, आपका ही घर है। जम कर रहेंगे तब काम होगा। हमारे जैसे साधारण १८० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy