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बाबाजी के भांग या चटनी पीसने की सिला रूप में बिहार में प्राप्त हुआ था जिसे मैंने अपने शांति भवन में लगा दिया है ! आपने इस विषय में स्वयं बोल कर एक पेज मेरे से लिखवाया भी था पर वह कार्य पूर्ण न । हो सका। यद्यपि आप लौंकागच्छ के थे पर खरतर गच्छ की महानता उन्हें निःसंकोच स्वीकार्य थी।
व्यक्ति को प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाने की उनमें जो भावना थी वह सौजन्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उन दिनों 'जैन लेख संग्रह' का जैसलमेर विषयक तीसरा भाग छप रहा था जिसमें मैंने समयसुन्दरजी के कुछ ऐतिहासिक स्तवन दिए जिन्होंने उक्त ग्रन्थ में मेरे नामोल्लेख पूर्वक साभार प्रकाशित किया । एकबार साहित्य सम्मेलन के प्रसंग में कुमारसिंह हॉल में साहित्य प्रदर्शनी की गई जिसमें हमारे संग्रह की सचित्र प्रतियाँ
आदि मंगवाकर सूची में नाम सहित प्रकाशित किया । इसी प्रकार श्री बंशीलालजी कोचर के दो सामुद्रिक चित्र भी उनके नामोल्लेख सह प्रदर्शित किए, यह उनका बड़ा भारी सौजन्य था। उनके यहाँ फिरंगी नामक एक नौकर रहता था जिनके पुत्र को पढ़ा-लिखाकर मैट्रिक पास करा दिया जिससे वह अपने जीवन को ऊंचा उठा सके। वे अपने सम्पर्क में आये व्यक्ति का बड़ा ध्यान रखते थे। गुणानुराग:
खरतर गच्छ के महान् आचार्यों के प्रति आपकी भक्ति और बहुमान था। आपने स्तवनावली, सांझी संग्रह और जैसलमेर के महत्त्वपूर्ण अभिलेख प्रकाशित कर गच्छ की महान सेवा की। दादा साहब श्रीजिनकुशलसूरिजी के आप परम भक्त थे। जयसागर उपाध्याय कृत 'रिसह जिणेसर सो जयउ' स्तोत्र तो आपको कण्ठस्थ था और बड़े प्रेम पूर्वक गाया करते थे। खरतर गच्छ पट्टावली के लिए आपने कहा-मैंने रात में दो-दो बजे तक परिश्रम किया है । जो लोग ईष्यावश अभयदेवसूरि को खरतर गच्छीय नहीं मानते उन्हें सचोट सप्रमाण उत्तर देने का मेरा विचार है। उन्होंने कहा-मुझे जो सं० १४१२ की राजगृह पार्श्वनाथ प्रशस्ति मिली वह भी इसके लिए उत्कृष्ट प्रमाण है। यह प्रशस्ति, मन्दिर ध्वस्त होने पर दो टुकड़ों में विभक्त हो गई थी और मुझे उसका दूसरा टुकड़ा
ओसवाल जाति के इतिहास पर लिखे गए मुनि ज्ञानसुन्दरजी के गप्प पुराण पर आप बड़े झुंझलाते और वीर संवत् ७० में ओसवाल जाति की उत्पत्ति उन्हें बिलकुल अमान्य थी। वे उसे छठी शताब्दी से पूर्व का नहीं मानते थे। वे कहते-कभी मैं इसकी सप्रमाण आलोचना करूंगा । आपका जाति-प्रेम उल्लेखनीय था। ओसवाल सम्मेलन आदि के कृतित्त्व इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्हें अपने 'नाहर' गोत्र का उल्लेख जहाँ कहीं मिलता नकल कर लेते। हमारे संग्रह के नाहर गोत्र के लेखों का संग्रह तो किया ही पर जब कवि जटमल नाहर के. सम्बन्ध में यह ज्ञात हुआ कि वे उन्हीं के गोत्रीय सुकवि थे तो उन्होंने अपने व हमारे संग्रह से नवीन ज्ञात जटमल के ग्रन्थों की नकलें बड़े उत्साह के साथ करवा कर रखी। हमने स्वामी नरोत्तमदासजी के साथ उसका सम्पादन भी किया । नाहरजी उसे प्रकाशित करना चाहते थे पर उनका स्वर्गवास हो जाने पर आज चिर काल से वह अप्रकाशित ही रहा। संस्कृति व धर्मरक्षक:
आप तोर्थ रक्षा वा धर्म रक्षा में सर्वदा कटिबद्ध रहते थे। किसी ने भी जैन धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में कोई गलतफहमी फैलाने की चेष्टा की तो आप उसका प्रेम पूर्वक निराकरण करते, उनसे पत्र-व्यवहार आदि द्वारा भ्रम दूर करके विश्राम लेते। एकदिन वार्तालाप के प्रसंग से मैंने उन्हें बतलाया कि जगदीशसिंह गहलोत ने मारवाड़ राज्य के इतिहास में राणकपुर के मन्दिर के सम्बन्ध में लिखते हुए उसे "पातरियों का मन्दिर"
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