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बतलाया है तो आपने उनसे पत्र व्यवहार किया और राणकपुर के शिल्प के महत्त्व के सम्बन्ध में काफी लम्बी चर्चा चलाई । एक अन्य प्रसंग आने पर उन्होंने इस बात की मधुर चुटकी लेते हुए कहा कि आप ऐसा सिलसिला छेड़ गए कि मेरे लिये वह लम्बी उधेड़-बुन हो गई। इसी प्रकार आपने श्वेताम्बर-दिगम्बर प्राचीनता आदि के विषय में निबन्ध लिखकर भ्रम का निराकरण किया।
वकालत का सदुपयोग :
डब्बे में नाहर जी बैठे हुये थे। मैंने उन्हें देखा, ज्योंही चार नजर हुई कि मुझे अपने पास बुलाकर राजगृह में अपने शान्ति भवन में ठहरने व रसोई पानी की कुछ भी खटपट न करने के लिये कहा । हमारे साथ काकाजी अगरचन्दजी भी थे। उन्हें सिलहट जाने की जल्दी थी अतः हम एक ही दिन ठहर कर कलकत्ता जाने लगे । नाहरजी ने इसके लिये कड़ा उपालंभ दिया। उस समय कवि लल्लूलालजी गन्धर्व राजगृह आए हुए थे। जब नाहरजी को उनकी काव्य प्रतिभा मालूम हुई तो उन्होंने उन्हें अपने वहाँ निमन्त्रित किया। नाहरजी का दरवान धर्मशाला में आया. लल्लूलालजी के साथी वहाँ बैठे थे जिनके मार्फत निमन्त्रण को पाकर वे शान्तिमवन गए और एक तत्कालिक कविता सुनाई जिसमें उनके निमन्त्रण का "ये तो द्विजराज के बुलाइवै को साज है" कहकर अन्त में "नाहर वनराज है" कह कर आने का कारण दर्शाया। नाहरजी उनकी काव्य प्रतिभा से बड़े प्रभावित हुए।
असाधारण प्रभाव व अनोखी सूझ:
हमारे सिलहट के एक व्यापारी नरेन्द्रचन्द्र दास जिसमें हमारे हजारों रुपये बाकी थे, उसने अपनी सम्पत्ति देवोत्तर कर डाली। हमने उस पर हाईकोर्ट में केस कर अग्रिम कुर्की निकाली। उस मामले के कागजात नाहरजी ने गौर से देखते हुए उचित सलाह दे रहे थे इतने में ही एक बंगाली बैरिस्टर नाहरजी के यहाँ आ पहुंचे। उन्होंने नाहरजी के कहने पर कागजों को उठाया और पृष्ठों को उलट-पुलट के रख दिये। नाहरजीने मेरे से कहा-देखो, यह धन्धा कैसा है। बिना स्वार्थ ये लोग नजर उठाकर भी नहीं देखते, राय देना तो दूर रहा । हाईकोर्ट की वकालत की सनद लेकर भी मुझे इस धन्धे से साहित्य और पुरातत्त्व की सेवा ही अच्छी लगती है फिर भी अपने अनुभव का उपयोग तो करना ही चाहिये। नाहरजो ने अपने कानूनी ज्ञान का सदुपयोग राजगृह. पावापुरी आदि तीर्थों के मामलों में अच्छी तरह किया था। आपके संग्रह में ऐसी तीर्थ माला जिसपर पटना हाई कोर्ट की छाप लगी थी तथा कमलसंयमोपाध्याय लिखित स्वर्णाक्षरी पत्रादि भी थे जिन्हें उन्होंने शहादत में पेश किए थे। तीर्थों के सम्बन्ध में आपकी सेवाएं उल्लेखनीय थीं। जैन समाज का कर्तव्य है कि आप के स्टेच्यू चित्र आदि वहाँ लगाएं।
बीकानेर से ठाकुर रामसिंहजी और स्वामी नरोत्तमदासजी कलकत्ता पधारे तो मैं उन्हें नाहरजी के यहाँ ले गया। कवि जटमल नाहर की गोरा बादल कथा की जिस हस्तलिखित प्रति के आधार से बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने उसे गद्य रचना बतलाई थी, उस प्रति का निर्णय करने के लिये हम लोग नाहरजी के साथ 'रयाल एसियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल' में गए । नाहरजी वहाँ के विशिष्ट सदस्य थे और उनका वहाँ बड़ा प्रभाव था। बेचारे थुल-थुल शरीर वाले युरोपियन पुस्तकाध्यक्ष ने स्वयं खड़े-खड़े प्रतियों को खोज कर उपर्युक्त कथा की प्रति निकाली और हमलोंगों का अच्छा स्वागत किया। नाहरजी के इस प्रयत्न से गोरा बादल संबन्धी हिन्दी साहित्य में जो गतानुगतिक बड़ा भ्रम फैला हुआ था, उसका सदा के लिये निराकरण
गुणी जनों के प्रति आदर :
एकबार बिहार से हमलोग राजगृह जा रहे थे। संलग्न
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