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देखते ही मुझे पूर्व जन्म कि बातें स्मरण हो आई जिससे मैं मूर्छित हो गई थी। यह सारी बात तुम्हें संक्षेप से बतलाती हूँ ।
यहाँ से कुछ दूर अंग नामक देश है जहाँ से होकर गंगा बहती है। इसके उभय तट पर बहुत से ग्राम-नगर बसे हुए हैं। इसमें जल पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड रहते हैं। मैं अपने पूर्व भव में वहाँ चक्रवाकी थी एवं मेरा पति शरीर से सुन्दर और स्वभाव से तपस्वी की भाँति सरल था । हम स्वतन्त्रता का पूरा आनन्द उठाते थे। चक्रवाक में जितना प्रबल और सच्चा स्नेह होता है वह सारे संसार में अप्रतिम है । हम दोनों हरदम साथ-साथ रहते । तैरने में खेलने और उड़ने में हमें एक दूसरे का वियोग असा था । एक दिन कोई महागजराज गंगा नदी में जलपान करने आया। वह सूड में भरकर इधर-उधर पानी उछालता और कालोल कर रहा था । इतने में एक यमदूत जैसा काला भीषण पारधी आकर वृक्ष के नीचे खड़ा हो लिये गया। हाथी का शिकार करने के उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर जोर से हाथी की ओर फेंका किन्तु दुर्भाग्यवश वह हाथी को न लगकर डाल पर देठे मेरे पति को लग गया। उनकी एक पॉस कटने से मूच्छित हो वे नदी के तट पर जा गिरे। मैं भी पीछेपीछे उड़ी और उनकी वेदना सहन न होने से मूर्छित हो गई । कुछ देर बाद होश में आने पर मैंने चंचु द्वारा उनका तीर खींचकर निकाल दिया और अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपनी पाँखों द्वारा हवा करने लगी। मैंने उन्हें जीवित समझ कर बहुत चेष्टा की कि वे कुछ बोले पर वे बोले नहीं में पुनः अचेत हो गई। चेतना लौटने पर मैंने अपनी चोंच से अपनी पांख के अन्दर के पिच्छ निकाल फेंके और उसी प्रकार स्वामी की पाँखों के पिच्छ भी चुन-चुनकर निकाले और उनसे चिपक कर विलाप करने लगी। इतने में ही वह पारधी वहाँ आया और हाथी के बदले मेरे स्वामी को मरा देख कर कहा
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'आह । प्रभु !' मैं उसके भय से उड़ कर सुदूर वृक्ष की शाखा पर जा बैठी पारधी उन्हें बालू पर रख कर काष्ठ लाने चला गया। मैं फिर डाल से उतर कर उनके पास आकर बैठ गई। मेरी वेदना का कोई पार नहीं था। इतने ही में पारधी काष्ठ लेकर आया और में आकाश में उड़ गई। पारधी ने मेरे स्वामी का अग्नि संस्कार कर चला गया। आह ! मेरे पति उस चिता में जल रहे थे। अतः मैं भी उसमें कूद पड़ी । मेरे पति के शरण में वह अग्नि भी मुझे सुख रूप लगी। इतनी बात कहकर तरंगवती फिर वेहोश हो गई। होश में आने पर उसने फिर बात आगे चलाई गंगा के तट पर मैं सती होने के पश्चात् कौशाम्बी नगरी में सेठ ऋपमसेन की पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। एकबार आगे भी मुझे यह बात स्मरण हो आयी थी। मैंने तुम्हें संक्षेप में यह बात कही है पर अब जब तक मैं अपने पति से न मिल सकूं तका तव तुम यह बात किसी को भी नहीं कहना |
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'आज सात वर्ष से मैं अपने प्रियतम से मिलने की आशा में माता-पिता को झूठी झूठी आशाएं देती आ रही हूँ । यदि यह सम्भव नहीं हुआ तो मैं हृदय की संताप दूर करने के लिये साध्वी वन जाऊंगी, ताकि फिर संसार के बन्धनों में न फँसना पड़े ।'
यह बात सुनते ही सारसिका के भी आँखों में आंसू आ गए और वह धेर्य पंधाते हुए बोली- सखी तुम्हारा प्रेम स्वर्गीय है, वेजोड़ है । यह प्रेम तुम्हें स्वामी से अवश्य मिलन करावेगा। फिर वे दोनों जहाँ अन्य स्त्रियाँ थीं वहाँ चली गईं। इसकी माता पुत्रवधुओं को नहलाने की व्यवस्था कर रही थी । तरंगवती की आँखे लाल और मुंह उदास देखकर कहने लगी- प्रिय पुत्री ! तुम्हें क्या हुआ ?' तरंगवती ने कहा- 'मां, मेरा सिर दर्द कर रहा है । यद्यपि आज बगीचे में ही सैल सपाटा और भोजन की व्यवस्था आयोजित थी. सब लोग आनन्द मना रहे थे पर एकाएक पुत्री को अस्वस्थ देखकर माता
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