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________________ रेख पर नियुक्त कर दिया । पर्व दिवस होने से स्वयं उपवास किया था, अतः सादी चटाई पर आसन जमा कर क्या होता है जानने के लिये प्रतीक्षा करने लगी। को बड़ी चिन्ता हुई किन्तु सबके आनन्द में भंग न पड़े इसलिए सारी व्यवस्था करके स्वयं तरंगवती और सारसिका को लेकर घर आ गई । ये तो बड़े घर की संतान, सहज ही आँख-माथा दुखे तो वैद्य · हकीमों की दौड़ा-दौड़ी हो जाती है। ऋषभसेन ने अविलंब कुशल वैद्यों को बुलवाया। उन्होंने नाड़ी परीक्षा की, अन्य प्रश्न पूछ कर अभिप्राय दिया कि-'भय जैसी कोई बात नहीं । वाई के शरीर में कोई रोग नहीं, थकावट या मानसिक चिन्ता से ही सिर-दर्द हो गया लगता है।' संध्या समय सब लोग बगीचे से घर आ गये । दूसरे दिन से तरंगवती का सिर-दर्द तो मिट गया पर मानसिक व्याधि बढ़ गई । पर्वभव के पति की प्राप्ति के लिये उसके रोम-रोम में रटना लग गई। तरंगवती के अपार रूप और गुणों से आकृष्ट होकर अबतक अनेक श्रीमन्त परिवारों से माँग आती थी पर चरित्र, विद्या, वय, गुण और धन आदि से योग्य न लगने से वे मांगे ठकरा दिए जाते थे। तरंगवती को अशक्य मनोरथ कैसे सफल हो इसी की तमन्ना लगी थी अतः उसने कठिन व्रत उपवास भी किये जिससे उसका शरीर सूखने लगा । एकाएक उसके हृदय में एक विचार का उद्भव हआ कि मेरे स्वयं पूर्वभव के सारे प्रसंगों को चित्रों में अकन कर प्रदर्शनी लगाई जाय । संयोगवश मेरे पति को भी उन्हें देख कर पूर्वभव का स्मरण हो जाय तो हमारा मिलाप हो सकता है उसने ये विचार अपनी सखी सारसिका को कहा और थोड़े समय में ही अत्यंत कुशलतापूर्वक पूर्वभव के सारे प्रसंग आलेखित कर चित्रमाला तैयार कर डाली। कार्तिक पूर्णिमा आने पर तरंगवती ने उन चित्रों को मूल्यवान चौखटों में मढ़ा कर अपने आंगन में प्रदर्शनी आयोजित कर सजा दिया और सारसिका को इसकी देख ऋषमसेन सेठ की हवेली राजमार्ग पर थी और उसका आंगन कला की दृष्टि से भी अलंकार रूप माना जाता था। अतः चांदनी रात में लोग प्रदर्शनी देखने के लिये खूब आने लगे। देर तक ऐसा चलता रहा । जब भीड़ कम हुई तो एक नवयुवक अपने मित्रों के साथ चित्र प्रदर्शनी अवलोकनार्थ आया । चित्रों को देखकर वह प्रशंसा करने लगा कि-'अहो ! क्या ही सुन्दर गंगा नदी चित्रित की है ! यह चक्रवाक युगल भी कैसे तादृश बनाये हैं। ये कमल वन में साथ-साथ घूमते हैं, बालुका पर आराम करते हैं । आकाश में भी साथ-साथ उड़ रहे हैं । अहा ! ये कैसे पबित्र प्रेम में बंधे हुये हैं। अरे ! यह हाथी भी कितना सुन्दर और स्वाभाविक है ! इस शिकारी के लाल नेत्र और दीर्घकाय तो देखो। पैर चौड़े कर किस प्रकार धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ा कर खींच रहा है । अरे, यह चक्रवाक इसी से घायल होता है जिसका दृश्य कितना दयनीय लगता है ! और उसे अग्निशरण करते ही चक्रवाकी भी उसमें कूद कर चिता-प्रवेश कर जाती है ! यह तो अजब स्नेह ! स्वर्गीय प्रेम । इस प्रकार बोलते ही वह बेहोश हो गया। उसके मित्र भी चित्र देखने में इतने तल्लीन थे कि उन्हें इस बात का पता तक न लगा | पता लगते ही वे उसे किनारे ले जाकर हवा देने लगे । सारसिका भी उनके पीछे-पीछे गई । जब सचेत हुआ तो वह बोलने लगा'अहा ! मेरी प्रिय चक्रवाकी ! आज तुम कहाँ हो? तुम्हारे बिना यह जीवन नहीं टिक सकेगा। मित्रों ने कहा-'क्या उटपटांग बोल रहे हो? पागल तो नहीं हो गए ? कैसी चक्रवाकी और क्या हुआ है तुम्हें ?' तरुण ने कहा'मैं पागल नहीं हुआ हूँ। तुम मानो या न मानो किन्तु ये चित्र मेरी पूर्व जन्म-कथा से सम्बन्धित हैं। मैं ही [ १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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