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________________ पर बनवाकर राजलदेसर मन्दिर में भेजे गए थे। इन्द्र प्रतिमाः इन्द्र की चामरधारी प्रतिमाए' तो पंचतीर्थी आदि में प्रचुर परिमाण में हैं पर भगवान के जन्माभिषेक समय की एक प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है जिसके गोद में एक छिद्र है जिसमें भगवान की प्रतिमा बैठाकर अभिषेक करने हेतु निर्मित प्रतीत होती है। इन्द्र प्रतिमा के मस्तक पर मुकुट कुण्डलादि देख कर जीवित स्वामी की प्रतिमा होने का भ्रम होता है । ऐसी प्रतिमा राय बद्रीदास कारित शीतलनाथ जिनालय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं देखी गई। विजय यंत्र: आचार्य श्री जिनप्रभसूरि द्वारा विजययंत्र का प्रत्यक्ष प्रभाव अनुभव कर सम्राट मुहम्मद तुगलक ने दो ताम्रमय यंत्र वनवाकर एक आचार्यश्री को भेंट किया व दूसरा स्वयं हरदम अपने पास रखने लगा था। घंटाकर्णयंत्र पट्ट : ताम्रपत्र पर घण्टाकर्ण पूजा के यंत्र और मंत्राक्षरादि वाले पट भी पाये जाते हैं। हमारे कलाभवन में एक ताम्रपट्ट संग्रहीत है। नवपद-सिद्धचक्र यंत्र : जैन समाज में चैत्र-आश्विन के अन्तिम नौ दिनों में आयंटिल पूर्वक नवपदों का आराधन किया जाता है जिसे ओली जी कहते हैं। मन्दिरों में नवपद मण्डल की रचना होकर विधि-विधान पूर्वक वृहत् पूजा भगाई जाती है। सिद्धचक्र यंत्र गट्टाजी तो स्नात्रपूजादि में नित्य ही पूजे जाते हैं । धातुमय सिद्धचक्र यंत्र चांदी पीतल और कांस्यमय प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं जिसमें कइयों में केवल नाम और कइयों में प्रतिमाएं उत्पीणित पायी जाती हैं । पाषाण पटों की भाँति धातुमय यंत्रों पर भी इस विधा का वैविध्य प्राप्त होता है । ढले हुए धातुमय यंत्र अजीमगंज के दूगड़ परिवार द्वारा शताब्दी पूर्व प्रचुर परिमाण में निर्मित हुए थे जिनमें अक्षर खुदे हुए नहीं पर ऊपर उठे हुए हैं । सिद्धचक्र मंडल के बहुत बड़े-बड़े पट्ट भी पाये जाते हैं । कलकत्ता के श्वे० पंचायती मन्दिर में एक वृहत् आकार का पट्टक है । इसमें मण्डल पूजन के सारे विधान विधिवत् बने हुये हैं। नव देवता: जिनकांची के मन्दिर में एक यंत्र और द्वितल पादपीठ स्थित कमलासन पर मध्य में नृसिंह और उभय पक्ष में बने सिंहों पर चक्र में अष्टदल युक्त सुन्दर यंत्र बना हुआ है। मध्य में अरिहंत, ऊपर सिद्ध, फिर आचार्य, उपाध्याय, साधु के अतिरिक्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के प्रतीक स्वरूप जिनालय, ठवणी पर शास्त्र, धर्मचक्र व तपस्वी मुनि के चित्र उत्कीर्णित हैं। अर्हन्त भगवान के उभय पक्ष में चामर रखे हुये हैं ! चतुर्मुख प्रासाद : मुनिश्री पुण्यविजय जी के संग्रह में धातु का एक नौ-ग्रह दश-दिग्पाल पट्ट : सिद्धचक्र विधानादि में मण्डलपूजा में ताम्र के नौ ग्रह दश दिग्पाल के बड़े-बड़े पट्ट बनते हैं जिनमें उनके नमस्कार पूर्वक नाम व प्रतीक खुदे रहते हैं। कई मन्दिरों में ऐसे पट्ट पाये जाते हैं । .. अष्टमंगल : प्राचीन शास्त्रों में पूठों पर चित्रों में और शिल्प में अष्ट मंगल प्रचुरता से पाये जाते हैं। सत्रह भेदी पूजा में भगवान के समक्ष अखंड चावलों से अष्टमंगल आलेखित होने का उल्लेख है पर वह कार्य कठिन होने से चांदी और पित्तल कांस्य के अष्टमंगल पट्ट भी सिद्धचक्र यंत्रादि की माँति प्रत्येक मन्दिर में पाये जाते हैं । पाटे पर खुदे हुए अष्टमंगल चावलों से पूरे जा सकते हैं पर आजकल चढ़ाने के इस उपादान को पूजनीय समझ कर लोग इनकी पूजा करने लगे हैं जो उचित्त नहीं । ७० ] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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