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सिरोही के कलापूर्ण मन्दिर विख्यात हैं जहाँ आसपास के अनेक गाँवों में सहस्राब्द के पूर्व के मन्दिर विद्यमान हैं। बसन्तगढ़ की दुर्लभ प्रतिमाएं भी पिण्डवाड़ा के जैन मन्दिर में होने का उल्लेख आगे किया जा चुका है । सिरोही के सभी मन्दिरों में कलापूर्ण प्राचीन प्रतिमाएं हैं । श्री अजितनाथ जिनालय में १७२ धातुमय जिन प्रतिमाए हैं तथा उसके आगे वाम पार्श्व में पुरातत्व मन्दिर है जिसमें दसवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक की ५४० प्रतिमाएं सुरक्षित हैं। आदिनाथ जिनालय के अन्तर्गत सुमतिनाथ जी के गंभारे के भूमिगृह में १००० धातु प्रतिमाएं १२वीं से १४वीं शती तक की हैं। इस मन्दिर में २९३ सर्व धातु की व ५ रजतमय प्रतिमाएं हैं। शान्तिनाथ मन्दिर में ३३ धातु प्रतिमाएं हैं। अन्य सभी मन्दिरों में अनेक धातु प्रतिमाएं हैं।
आवू अचलगढ़ तो अपनी शिल्प समृद्धि के लिये विश्व विख्यात है। विमल प्रवन्ध से ज्ञात होता है कि विमलवसही में मूल नायक की प्रतिमा पित्तलमय थी। यतः ।। वस्तु ।। "विमलवसही विमलवसही विमल प्रासाद
पित्तलमइ अढार भारनी आदिनाथ प्रतिमा प्रसिद्धी संवत् १०८८ वर प्रतिष्ठ शुभ लग्नि
कीधी।" अचलगढ़ में विशाल जिन प्रतिमाएं १४४४ मन तौल की है जिनमें स्वर्ण का भाग भी अच्छे परिमाण में हैं। आबू की भीमावसही जिसे पित्तलहर कहते हैं, में सुन्दर और कलापूर्ण विशाल मूलनायक प्रतिमा विराजित हैं।
जैन धातु प्रतिमाएं अनेक विधाओं की प.यी जाती हैं एवं अन्य उपादान भी अनेक प्रकार के उपलब्ध हैं जिन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है।
नेर, सीरोही आदि में प्रतिष्ठित ऐसी प्रतिमाओं के मध्य स्थित कर्णिका पर यह जिन प्रतिमा और उसके आसन के निम्न भाग से भिन्न-भिन्न अष्टदल पंखुड़ियाँ पिरोकर संलग्न किये रहते हैं जिनमें आठ भगवान की आठ प्रतिमाएं बनी रहती हैं । उन्हें वन्द करने पर बन्द कमल और खोल देने पर विकसित कमलाकार में मध्य वेदी सहित नौ प्रतिमाओं के एक साथ दर्शन हो जाते हैं । दिल्ली के नौघरा मन्दिर में इस विधा का एक और विकसित रूप देखा गया है जिसमें डबल स्तर में अत्यन्त सुन्दर ढंग से जिन बिम्ब-नवपदादि बने हुये हैं । बीकानेर में अकवर-प्रतिवोधक श्री जिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित कई प्रतिमाएँ हैं पर श्री जयचन्द्रजी के भण्डार में सं०१८९५ में महाराजा रणजीतसिंह के राज्यकाल में पिण्डी में. प्रतिष्ठित एक ऐसी प्रतिमा है । हमारे शंकरदान नाहटा कलाभवन में एक स्वर्णमय कमल है जिसके वीच में हाथी दाँत की जिन प्रतिमा है। दबाने पर कमल विकसित हो जाता है।
सिद्ध प्रतिमा :
अर्हन्त भगवान तो सशरीरी होते हैं पर सिद्ध भगवान तो अरूपी आत्म-प्रदेश मात्र हैं। उनका रूप चित्रण कैसे हो? इस समस्या का समाधान दिगम्बर परम्परा में निकाला गया और पीतल-रजत आदि धातु के पात को खङ्गासन काटकर मध्य में केवल अवगाहना त्रिभाग घनीभूत आत्मप्रदेश का प्रतीक आकाश प्रदेश खाली रख दिया गया । यह सिद्धमूर्ति के दर्शन की विधा केवल दिगम्बर जिनालयों में ही दृष्टिगोचर होती है। श्वेताम्बर समाज ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । गणधर प्रतिमा
कलकत्ता मन्दिर में १६ वीं शती की दो धातुमय गौतम स्वामी जी की प्रतिमाएं हैं। गत शताब्दी में पुण्डरीक स्वामी की प्रतिमा बनवा कर प्रतिष्ठित करवायी थी। उसी समय दादासाहब के चरण भी कमलासन
अष्टदल-कमल:
लगभग चार सौ वर्ष से अष्टदल कमल युक्त प्रतिमा निर्माण के उदाहरण बीकानेर आदि में देखे गये हैं। बीका
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