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बड़ी इच्छा थी कि इनका एक विशाल संग्रह प्रकाशित हो पर आपके अकाल में ही स्वर्गवासी हो जाने से वह इच्छा मन की मन में रह गई। जैन समाज का कर्तव्य है कि उनके अमोष्ट कायों को पूरा कर के साहित्य सेवियों के लिए सामग्री सुलभ कर दें।
स्वर्गवास के पूर्व नाहरजी भारत के प्रायः समस्त जैन तीर्थों की यात्रा एवं विशिष्ट स्थानों का प्रवास कर के लौटे थे। वे घर आते ही बीमार पड़ गए । जब मैं मिलने गया तो उन्होंने कहा मेरा ज्वर उतर जाय तब आप दो चार दिन बाद आइये और थोड़ा कष्ट करके मूत्तियों के लेख और दूसरी वस्तुओं की सुव्यवस्थित तालिका बनादें कारण यह कार्य तो आपको ही करना है। उस समय किसे मालूम था कि नाहरजी से फिर मुलाकात ही नहीं होगी । पाँच-छ दिन मैं उनके यहाँ नहीं जा सका और वे स्वर्गवासी हो गए । उनकी अन्त्येष्ठि क्रिया हो जाने के पश्चात् ही मुझे वह दुःखद समाचार मालूम हुआ। काव्य और अलंकार ज्ञान :
नाहरजी सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे । एकबार
काव्य अलंकार के सम्बन्ध मैं वार्तालाप होनेपर उन्होने विभिन्न छन्दों के उदाहरण बैठे-बैठे प्रस्तुत कर दिए जिनकी रचना में गणों का, मात्राओं का इस प्रकार प्रयोग होता है। उन्होंने द्र तविलम्बित छंद के उदाहरणों में "नत नरेश्वर मौलिमणिप्रभा" आदि समयसुंदर जी कृत दादा कुशल स्तोत्रका एक छंद बोला । त्रोटक छंद के उदाहरणों में अजीर्णमंजरी का श्लोक प्रस्तुत किया-"पनसेकदलं कदलं च घृतं घृत पाक विनाशन जू भरसम् तदुपद्रब नाशकरं लवणं. लवणेषुच तन्दुलवारिवरम्" तथा "शारदे वरदे तुमि कल्पतरु, तुमि भिन्न चराचर शुष्क मरु । प्रखरातप तप्त प्रखिन्न जने, वर देहि मे माता हृष्ट मने"। फिर बतलाया-"बिलेते पालाते छटफट करे नव गौड़े। बिना हैट कोट पोरे धुती पोरे मान रहे ना" इत्यादि ।
नाहरजी का स्वर्गवास हुए आज लगभग चार दशक बीत गए पर उनके कार्य-कलाप, उनकी सौम्य-शुभ्र मुद्रा, उनकी मधुर ओजस्वी वाणी आज भी मेरे हृदय-पटल पर अंकित है।
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