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भजन कीर्तन करें । नवमी की रात को यह आयोजन हुआ और अर्द्धरात्रि में तूफान व पत्थर वर्षा से सारे पट टूट कर उड़ गये. केवल सुपार्श्वनाथ भगवान का पट स्थिर रहा । लोग विस्मित होकर कहने लगे-'ये अरिहंत देव हैं। उस पट को सारे नगर में घुमाया, पट यात्रा प्रवर्तित हुई।
अरि-करि-हरि-तिण्हुण्हंबु-चौराहि-वाही समर-डमर-मारी - रुद्द - खुद्दोवसग्गा। पलय मजिय संत-कित्तणे झत्ति जंती निविड़ तर तमोहा भक्खरा लुखियव्व ।।
-जैसे सूर्य के स्पर्श मात्र से अति निविड़ अन्धकार समूह शीघ्र नष्ट हो जाता है वैसे श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवान का गुण संकीर्तन स्तुति से शत्रु, हाथी, सिंह, तृषा, गरमी, पानी और आधि-व्याधि, संग्राम डमर, मारि और व्यन्तरादि के मंयकर उपद्रवों का नाश होता है।
भक्ति-स्तुति-संकीर्तन के प्राचीन जैनागमों में अगणित उदाहरण पाये जाते हैं । शरणापन्नता तो वहाँ पद-पद पर प्रधान हैं। चार शरण में समर्पण भाव ही तो है। तीर्थकरों के समवसरण में देव-देवीगण वाद्य नृत्य और गीत लय के साथ संकीर्तन करते थे। जिनालय वस्तुतः समवसरण के ही प्रतीक हैं। उनमें नृत्य-वाजित्र और संकीर्तन के कक्ष-मण्डप सर्वत्र हैं ही। स्तंभों पर इन गीत नाद वाजिवरत किन्नर, गान्धों और देवियों की कलामय भाव-भंगिना युक्त अगणित मूर्तियां बनी रहती है। आबू. आर.सन, देवगढ़, जैसलमेर आदि के मन्दिरों में ये शिल्प भक्ति-संकीर्तन के अमर प्रतीक हैं।
भगवान महावीर स्वामी के शिष्य नन्दिषेण कृत 'अजित शान्ति स्तोत्र' प्राकृत भाषा की एक प्राचीनतम कृति है जो ४२ छन्दों में हैं और उसके प्राचीनतम दुर्लभ छंद आज भी राग-रागिणी के साथ बोले जाते हैं। इसमें भक्ति-शरणापन्नता और प्रभु-वर्णन के सभी रस ऊंडेल दिये गये हैं। प्रभु नाम संकीर्तन का महत्व निम्नोक्त मागहिआ ( मागधिका) छंद में कहा है कि
अजिय जिण सुह पवत्तगं, तब पुरिसुत्तम नाम कित्तणं । तह य धिइ-मइ-पवत्तणं, तव य जिणत्तम संति कित्तणं ।।
-हे पुरुषों में उत्तम अजितनाथ । हे जिनोत्तम शान्तिनाथ। तुम दोनों के नाम संकीर्तन-स्तवन सुख देने वाला तथा धैर्य और बुद्धि प्रकटाने वाला है।
इसी स्तोत्र के रत्नमाला छंद (जं सुरसंघा सा सुरसंघा) में बतलाया है कि देवों और असुरों का संघ भगवान की भक्ति में वैर-भाव भुलाकर कैसे वाहनों में और कैसी वेश-भूषा में आते हैं।
मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में एक विशाल जैन स्तूप निकला, जिसकी मूर्तियाँ मथुरा, लखनऊ एवं विदेशों के संग्रहालयों में हैं। उसके इतिहास में विविध तीर्थकल्प में श्रीजिनप्रभसूरि महाराज ने लिखा है-यह लाखों वर्ष पूर्व कुवेरा देवी ने स्थापित किया, जो देव-निर्मित बौद्ध स्तूप कहलाता है। एका-एक प्रगट होने पर ये किसके आराध्य देव हैं ? इस बात का निर्णय करने के लिए चित्रपट में अपने अपने देवों को आलेखित कर रात भर
ज्ञाता सूत्र और रायपसेणीय सूत्र में द्रोपदी. सरियाम देव आदि की भक्ति का विशद् वर्णन पाया जाता है। सतरह भेदी पूजा में नृत्य, संकीर्तन और वाद्य आदि प्रधान है। पूजा साहित्य बहुत विशाल है, आये दिन उत्सवों में पूजा-भजन रात्रि-जागरण आदि भक्ति के आयोजन प्रचुरता से जैन समाज में होते ही रहते हैं।
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