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________________ प्रश्न था । चिन्तन चल रहा था। रात्रि में स्वप्न में भालों की नोक के छिद्र को देखकर सुई की नोंक पर छिद्र करने से सारी समस्या हल हो गई। यह बात हमें यह रहस्य बतलाती है कि आत्मा की अचिन्त्य शक्तियाँ भक्त को भगवान के रूप में अपनी धारणा के अनुसार सिद्धि प्राप्त करा देती हैं। बीणा. वेणु, बंशी आदि वांछित स्वर तालबद्ध सुनाती हैं। यह सिद्ध हो जाने पर जब जैसी इच्छा हो संकीर्तन की ध्वनि सुनते हुए आत्मा बाह्य जगत् से हट कर अन्तर में रमण करने लगती है। जब नाद ध्वनि खुल जाती है तब अगम रेडियो द्वारा यथेच्छ संगीत सुनता है। भक्त इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है. पर यह साधना की प्राथमिक भूमि है। वहीं न अटक कर उसे तो आगे बढ़ना है । आत्म-साक्षात्कार परमात्म साक्षात्कार करना है। साधक यदि पंचेन्द्रियों के विषयों में अटक जायेगा अर्थात् राज दरबार में स्वागतार्थ प्रगटित दिव्यों में अटक जाएगा तो वह राजा के दर्शन कैसे करेगा? उसे तो आत्मानुभूति मार्ग से आगे बढ़ कर आराध्य प्रभु से एकत्व प्राप्त करना है. जो वह है, वही मैं हूं । 'सोहम्' की इस साधनानुभूति में भक्त साधक आनन्द विभोर हो जाता है। वही भक्ति की परम उपलब्धि है। प्रार्थना और नाम-संकीर्तन को सभी धर्मों में आवश्यक माना गया है। उसके प्रभाव से सभी प्रकार के भय, चिन्ता आदि से मुक्त होकर भक्त निर्भय हो जाता है। जिस प्रकार अपनी मां की गोद में बालक सर्वथा निर्भय रहता है, उसी प्रकार प्रभु नाम संकीर्तन उसे अष्ट महाभयों से उबार कर सर्वथा सुरक्षित कर देता है। भगवान की पूजन विधि में भक्ति ही सार है, भावना प्रधान है, साधना सामग्री तो स्थिरता, एकाग्रता के लिए रूपक है । जिस प्रकार हम जलादि से भगवान का अभिषेक करते हैं, परन्तु उसमें वास्तविक जल तो भक्ति है। अध्यात्म-तत्त्ववेत्ता श्रीमद् देवचन्द्रजी के शब्दों में 'कलश पाणी मिसे भक्ति जल सींचता' ही रहस्य है। भक्तामर स्तोत्र के कर्ता श्री मानतुंगसूरि अपने 'नमिऊण' संज्ञक भयहर स्तोत्र में भगवन्नाम संकीर्तन के प्रभाव का वर्णन इस प्रकार करते हैं भक्त लोग भगवान को विविध स्तुति से. निन्दास्तुति के उपालम्भ से विरूदाते हैं। वह विद्या-विलास है. पर अन्तर-हृदय के तार, टेलीवीजन या टेलीफोन की भाँति जोड़ने के लिए भक्ति करना. धुन करना. संकीर्तन करना उत्तम और निरापद मार्ग है। उससे भक्त को अपने आराध्य के प्रति एकाग्रता आने से उसके साक्षात् दर्शन हो जाते हैं। भक्त जिस रूप में भगवान को आकलित करता है. उसी रूप में भगवान के दर्शन पाता है। वास्तव में वे अपनी आत्मा की अचिन्त्य शक्तियां हैं. जो मक्त को भगवान रूप में, वैज्ञानिक को विज्ञान स्फुरणा रूप में साफल्य-लाभ देती है। भक्त अपने आराध्य की अपनी धारणा के अनुसार विवध लीलाओं . के दर्शन कर आत्म • तुष्टि और ध्येय - सिद्धि प्राप्त करता है । वास्तव में लगनशीलता, चित्त की एकाग्रता उसके कार्यसिद्धि में सहायक होती है । सिगर सिलाई मशीन के निर्माता को सारी सफलता मिली. पर सुई के साथ धागा जाने पर वापस कैसे आवे यही रोग-जल-जलण-विसहर-चोरारि-मईद-गय-रण भयाई। पास जिण-नाम संकित्तणेण पसमंति सव्वाई ॥ अर्थात्-भगवान पार्श्वनाथ के नाम संकीर्तन से रोग जल, अग्नि, साँप, चेर, शत्र, सिंह, हाथी तथा युद्ध के भय नष्ट हो जाते हैं। श्री जिनवल्लभसूरिजी कृत लघु अजित शान्ति स्तोत्र में कहा है कि [ २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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