SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होंगे और भोजन के योग्य बनेंगे। वैसे ही. कोरे क्रियाकाण्ड भक्ति के बिना केवल काया कष्ट ही सिद्ध होंगे। भगवान कृष्ण की भक्ति का प्रचार गौरांग महाप्रभु ने खूब किया. जिससे प्रभु-दर्शन और आत्म-सिद्धियाँ प्राप्त हुई। अनेक प्रकार की चमत्कारिक घटनायें प्रत्यक्ष देखकर लोग निष्ठावान बने। जिसने संकीर्तन और धुन आदि को अपनाया. वे अपने आराध्य के प्रति पूर्णतया समर्पित होकर अपनी ध्येय-सिद्धि में सफल हुए। संकीर्तन से, भक्ति से, निष्ठा से विष भी अमृत में परिवर्तित हो जाता है। भक्त शिरोमणि मीरा का उदाहरण जगत् प्रसिद्ध है। अतः आराध्य के प्रति समर्पण भाव ही आत्म-शक्ति को प्रकट करने वाला है । उन्हें लब्धियाँ. सिद्धियाँ आदि प्राप्त हो जाती हैं और सात्विक जीवन कर, बर्बर और अत्याचारी मनुष्य को अपने अनुकूल बनावे, उसकी तो बात ही क्या, हिंसक पशु साँप आदि भी सब शान्त हो जाते हैं। प्रेम. भक्ति का अमोघ अस्त्र जिसके पास है, उसे संसार में कुछ भो दुर्लभ नहीं। जैन धर्म में भक्ति और संकीर्तन साधना के अनेक मार्ग हैं। जिसप्रकार एक ही गन्तव्य स्थान के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों से गमन किया जा सकता है। दूरी का अन्तर भले ही हो पर वे एक दूसरे के विरोधी नहीं. प्रत्युत सहयोगी ही कहलायेंगे, उसी प्रकार साधना मार्ग में ज्ञान-मार्ग और भक्ति-मार्ग का प्राधान्य है। ज्ञान-मार्ग एक इंजन की भाँति है. जिसे अनेक प्रकार के कल-पुजौँ से संचालित किया जाता है। वह श्रम-साध्य और दुरूह है। किन्तु भक्ति-मार्ग उसके पीछे लगने वाले डिब्बों की भाँति है। उससे जुड़ जाने वाले डिब्बे अवश्य ही गन्तव्य स्थान को प्राप्त करेंगे और जो विभक्त रहेंगे वे पड़े रह जाएंगे। भक्ति में केवल एकनिष्ठ श्रद्धा की आवश्यकता है। जहाँ ज्ञान-मार्ग में अभिमान, ईर्ष्या आदि दोषों का बड़ा खतरा है. वहाँ भक्ति-मार्ग में लघुता, दीनता, सम्पूर्ण समर्पण भाव और ध्येयप्राप्ति की तमन्ना ही प्रधान है। नाम संकीर्तन की स्वर लहरी बाह्य और आभ्यन्तर समस्त वातावरण को परिवर्तित कर, शुद्ध सात्विक भावों के परमाणु बिखेर कर, पापियों की पाप-भावना नष्ट कर सन्मार्ग के प्रति गतिशील बना देती है। अतः प्रभु नाम-कीर्तन-भक्ति का जितना अधिकाधिक प्रचार होगा. देश की उन्नति में चमत्कारिक रूप से परिवर्तन लाकर विश्व-मैत्री की स्थापना करेगी। संकीर्तन के प्रताप से भक्तों को पाँचों इन्द्रियाँ भगवानमय अनुभूति प्राप्त कराती हैं। स्पर्शनेन्द्रिय दिव्य स्पर्श अनुभव कराती है। रसनेन्द्रिय दिव्य स्वाद सहस्रदल कमल द्वारा दिव्य अमृत पान कराती है। घ्राणेन्द्रिय दिव्य सुगन्धि की वह अनुभूति करातो है कि वाह्य जगत् उसका आकलन नहीं कर सकता। चक्षुइन्द्रिय दिव्य-दर्शन द्वारा भगवान् के दरबार की भक्ति भरी लीलायें प्रदर्शित कराती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय तो विविध राग-रागिनियाँ और यदि भगवान के प्रति हृदय में भक्ति नहीं हो, एकनिष्ठा न हो. तो सारे क्रिया-काण्ड छाई पर लीपने के सदृश्य हैं। आहार के लिए चावल मौजद है पर उन्हें कोरे ही आग पर चढ़ा देगें तो वे जल जायेंगे। अतः हम अपनी बुभुक्षा उनसे न मिटा सकेंगे। यदि चावलों के साथ हम जल का मिश्रण करके डालेगें तो वे सिद्ध २०२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy