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आदरणीय भवरलालजी नाहटा के अभिनन्दन के शुभ अवसर पर मुझे ऋग्वेद के उस सुपर्ण युगल की याद आ जाती है जो एक साथ जन्में. जीवन भर सखा रहे और समान शाखा का अवलम्बन लिया । मेरे जैसे कतिपय आत्मीय-जन ही जानते होंगे कि आ० अगरचन्दजी नाहटा तथा आ० भंवरलालजी नाहटा में पारिवारिक दृष्टि से चाचा-भतीजे का सम्बन्ध था । विद्वज्जगत उन्हें सुपर्ण युगल की तरह ही जानता है। हमलोग उन्हें जीवित विश्वकोश मानते हैं। जैन विद्या के लिये ही नहीं समग्र प्राचीन भारतीय वाङ्गमय के इतिहास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान हमेशा स्मरण किया जाएगा ।
भंवरलाल जी सा० से सबसे पहले अनेक वर्ष पूर्व कलकत्ता में उनकी गद्दी पर मिला था । अगरचन्दजी सा० उस समय वहीं थे। परिचय के वे अपूर्व क्षण स्मरण आते हैं। भंवरलाल जी पर अब अगरचन्द जी सा० का भी दायित्व आ गया है।
भंवरलाल जी नाइटा जैसे मनीषी का अभिनन्दन विद्या के लिये समर्पित एक वरद-पुत्र का अभिनन्दन है। इस अवसर पर उन्हें हमारे अनेकों प्रणाम ।
-डॉ० गोकुलचन्द्र जैन अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
राजस्थान के बीकानेर नगर ने वर्तमान युग में अनेक साहित्यिक प्रतिमाओं को जन्म दिया। इनमें सर्वश्री अगरचन्द जी और उनके भतीजे श्री भंवरलाल नाहटा जी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों महानुभावों ने अपनी विविध उपलब्धियों से न केवल राजस्थान को धन्य किया, अपित इस देश की शोधपरक साहित्य साधना को गौरवान्वित किया। स्कूल, कॉलेज की औपचारिक उच्च शिक्षा दोनों को प्राप्त नही हुई थी, पर देवी वरदान तथा अपने विशद् अनुभव से इन्होंने साहित्यिक जगत् को वहुमूल्य रत्नों से विभूषित कर दिया ।
श्रद्धेय भाई अगरचन्द जी के बारे में मैंने एक बार लिखा था कि 'नाहटाजी ने जितना जोड़ा है उससे कहीं अधिक लुटाया है ।' दानवीरता की यह भावना भंवरलाल जी पर भी खरी उतरती है। उनका दान साहित्यिक क्षेत्र में उसी प्रकार व्याप्त है जिस तरह देश के अनेक प्राचीन साहित्यकारों का अवदान विकीर्ण है । सौभाग्य से भंवरलाल जी को भी आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त रही है। इससे उन्हें जीविकार्थ अनेक कठिनाइयों से आहत नहीं होना पड़ा । जिनके कारण साहित्यकारों की क्रियाशीलता कुंठित हो जाती है और वे अपने कर्तव्य का निर्वाह सम्यक् ढंग से नहीं कर पाते।
श्री भंवरलाल जी के एक समृद्ध पुस्तकालय अध्ययन हेतु उनके यहां सुलभ था, उसका उपयोग तो उन्होंने किया ही साथ ही कलकत्ता. दिल्ली, प्रयाग, वाराणसी, ग्वालियर आदि केन्द्रों में उपलब्ध सामग्री का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया। पुरातत्त्व. इतिहास, साहित्य, कला और लोक-जीवन में उपलब्ध मूल-स्रोतों के विवेचन की असाधारण शक्ति उनमें है। 'नामूल लिख्यते किंचित' मंत्र का उन्होंने आस्था के साथ पालन किया है। चाहे उनकी मूल रचनाएं हों अथवा अनुदित-संपादित कृतियाँ सब में एक वैज्ञानिक तर्क-सम्मत मीमांसा देखने को मिलती
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