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________________ किया है उसका सम्बन्ध लेश्या के साथ नहीं है । लेश्याओं कि जैन दर्शन ने यह वर्णन महाभारत से लिया है । क्योंकि का जो सम्बन्ध है वह एक-एक व्यक्ति से है। विचारों अन्य दर्शनों ने भी रंग के प्रभाव की चर्चा की है। पर को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के जीवन में जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में जितना गहरा चिन्तन किया समय के अनुसार छः भी हो सकती है। है इतना अन्य दर्शनों ने नहीं किया। उन्होंने तो केवल छः अभिजातियों की अपेक्षा लेश्या का जो वर्गीकरण इसका वर्णन प्रासंगिक रूप से ही किया है। अतः डॉ० है वह वर्गीकरण महाभारत से अधिक मिलता-जुलता है। हमन जेकोबी का यह मानना कि लेश्या का वर्णन जैनियों एकबार सनत्कुमार ने दानवों के अधिपति वृत्रासुर से कहा ने अन्य परम्पराओं से लिया है, तर्कसंगत नहीं है। -प्राणियों के छः प्रकार के वर्ण हैं : (१) कृष्ण (२) धूम्र कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने गति के कृष्ण और ३) नील (४) रक्त (५) हारिद्र ओर (६) शक्ल | कृष्ण शक्ल में दो विभाग किये। कृष्ण गति वाला पुनः-पुनः और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक जन्म-मरण ग्रहण करता है, शक्ल गति वाला जन्म और सहन करने योग्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर होता मरण से मुक्त हो जाता है । ३६ धम्मपद ३७ में धर्म के दो विभाग किये हैं-कृष्ण और ___ महाभारत में कहा है-कृष्ण वर्ण वाले की गति नीच शुक्ल । पण्डित मानव को कृष्ण धर्म का परित्याग कर होती है। जिन निकृष्ट कर्मों से जीव नरक में जाता है शुक्ल धर्म का पालन करना चाहिए। वह उन कर्मों में सतत आसक्त रहता है। जो जीव नरक महर्षि पतंजलि ने कर्म की दृष्टि से चार जातियां प्रतिसे निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है जो रंग पशु-पक्षी पादित की हैं-(१) कृष्ण (२) शक्ल-कृष्ण (३)शक्ल (४) जाति का है। मानव जाति का रंग नीला है । देवों का अशक्ल-अकृष्ण, जो क्रमशः अशद्धतर, अशद्ध, शद्ध और रंग रक्त है-वे दूसरों पर अनुग्रह करते हैं। जो विशिष्ट शद्धतर है। तीन कर्मजातियां सभी जीवों में होती हैं, देव होते हैं उनका रंग हारिद्र है। जो महान साधक हैं किन्तु चौथी अशक्ल-अकृष्ण जाति योगी में होती है । ३८ उनका वर्ण शक्ल है।४ अन्यत्र महाभारत में यह भी प्रस्तुत सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है कि उनका कर्म लिखा है कि दुष्कर्म करने वाला मानव वर्ण से परिभृष्ट कृष्ण होता है जिनका चित्त दोष कलुषित या क्रूर है । हो जाता है और पुण्य कर्म करने वाला मानव वर्ण के पीड़ा और अनुग्रह दोनों विधाओं से मिश्रित कर्म शक्लउत्कर्ष को प्राप्त करता है । ३५ कृष्ण कहलाता है। यह बाह्य साधनों से साध्य होता है । तुलनात्मक दृष्टि से हम चिन्तन करें तो सहज ही तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत व्यक्तियों के कर्म परिज्ञात होता है कि जैन दृष्टि का लेश्या-निरूपण और केवल मन के अधीन होते हैं। उनमें बाह्य साधनों की किसी महाभारत का वर्ण-विश्लेषण-ये दोनों बहुत कुछ समा- भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा नता को लिये हुए हैं । तथापि यह नहीं कहा जा सकता है दी जाती है, एतदर्थ यह कर्म शुक्ल कहा जाता है। जो ३३ षड जीववर्णा परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । ___रक्तं पुनः सह्यतर सुखं तु, हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् ।। -महाभारत, शांति पर्व, २८०/३३ । ३४ महाभारत, शांति पर्व, २८०/३४-४७ । ३५ महाभारत, शांति पर्व, २६१/४-५ । ३६ शुक्लकृष्णे गती ह्य ते, जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽवर्तते पुनः॥ -गीता ८/२६ । ३७ धम्मपद, पंडितवरग, श्लोक १६ । ३८ पातञ्जल योगसूत्र, ४/७ । ४२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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