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ऐसे ही एकबार आप बीकानेर जैन संघ की ओर से श्री हरिसागरजी के पास उन्हें बीकानेर ले आने के उद्देश्य से नागौर पधारे। आपके साथ बीकानेर के कुछ सम्भ्रान्त व्यक्ति भी थे। श्री हरिसागरजी नागौर में ही चातुर्मास बिताने के लिये वचनबद्ध थे। अनुनय, विनय के पश्चात् भी कुछ हल नहीं निकला। अन्त में श्री भंवरलालजी की काव्य-चेतना प्रस्फुटित हुई और आपने श्री गुरु के चरणों में निवेदनार्थ अपनी विवशता व्यक्त की, जो द्रष्टव्य है
कुत्वानेक परिश्रमोऽपि गुरुवः
न स्वीकृता वीनती । श्रीमन्नागपुरीयसंघविदिता
हृदयेन कृपणा महा ॥ गच्छन्नति च शासनस्य शोभा
सम्मान संघस्य च । न श्रुत्वा विभर्षिता कथंचित्
कलयामि कथयामि किम् ।। श्री ताजमलजी बोथरा कलकत्ते के एक विशिष्ट समाजसेवी, धनी मानी व्यक्ति हैं । आपने एक दिन भंवरलालजी से आग्रह किया कि बंगाल में सराक जाति लाखों की संख्या में निवास करती है। ये जैन श्रावक जाति के बंगज हैं। उनके लिये बंगला में श्रावककृत्य की विशेष आवश्यकता है । यदि ऐसा ही कुछ हो जाय तो बड़ा उपकार होगा। भावक श्री भंवरलालजी को यह बात मन में बैठ गई और बात ही बात में इस कविमनीषी ने बंगला भाषा में २७ पद्यों में श्रावककृत्य लिख डाला
श्रावक तुमि उठे पड़ो अत्यन्त सकाले । दुइ दण्डो थाकिते उषार अन्तराले ॥ अल्पो लाभे अल्पारम्भ हय जे व्यापार । शोषण दूषण रहित नीतिश्रम आधार ।। नदी पुकुर वन ठीका हिंसामय व्यापार । लोहारस बीज अस्थि आदि परिहार ।। जल दुग्ध घृत तेल छाकना दिया राखो । प्रमार्जन आदि काजे जीव यत देखो।।
जैन भवन में वैद्य जसवंतरायजी के अनुरोध पर श्री विजयबल्लभसूरिजी जयन्ती में आपको जब कुछ कहने के लिए कहा गया तो तत्काल आपने प्राकृत में गाथायें बनाकर सुनायी और सभी सम्भ्रान्त व्यक्तियों को आश्चर्य में डाल दिया। गाथायें इसप्रकार थीं
सिरीवल्लह सुगुरुणं तवगच्छायण सूर चंदाणं । वंदामि भत्ति-भावेण सग्गारोहण दिणो अज्ज ||२|| आसोय कण्ह पक्खे इक्कारसी राइय तइय पहरे । मुंबाणामा णयरी बहु सड्ढ समाकुले दीवे ॥२॥
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