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________________ स्तुत्य तथा महत्त्वपूर्ण हैं। कार्य या कृतित्व प्रयास को कसौटी चाहते हैं और उनकी सफलता या असफलता पंडितों पर निर्भर करती है। व्यक्तित्व की परख के लिए वस्तुतः व्यक्तित्व की अन्तर्दृष्टि के ज्ञान की आवश्यकता होतो है पर आज तक मानवमनीषा सतत अभ्यास के बावजूद भी किसी भी व्यक्तित्व की सही परख करने में असमर्थ हो रही है। इसलिये कि समय. समाज. परिस्थिति और व्यक्ति की चित्तवृत्ति के जितने अध्ययन हो सके हैं, सभी अध्ययन के प्रोसेस में हैं। फलतः प्रोसेस से संतुष्ट होकर अन्तिमेत्थम की बात पर बल देना हास्यास्पद ही हुआ है। विज्ञान की कसौटी के लिये तो स्थिर मानदंड हैं। इसीलिये उनके सिद्धान्त कथन में बहुधा एक्युरेसी देखी जाती है पर पदार्थ के गुणात्मक परिवर्तन की परिणति जिस चेतना को जन्म देती हैं उसके गुणात्मक तथ्य के गुणात्मक अन्तर्द्वन्द्व से उनकी चेतना विधाओं का आकलन आज भी अधरमें लटका हुआ है। अतः मानव अन्तरात्मा की ग्रंथि खोलने के प्रयत्न मात्र वाग्विलास होकर निर्णय के लिये किसी स्वस्थ मानदंड की खोज में अब भी व्यस्त हैं। किन्तु सामाजिक चेतना का यह अस्थिर मानदंड ही श्रेयस्कर है। इसलिये कि इसमें चेतना की स्वतन्त्रता का आभास मिलता रहा है जिसे एंगिल आफ थाट्स कहते हैं । नाहटा-बन्धुओं की कृति भी एमिल आफ थाट्स् से द्रष्टव्य है क्योंकि रुचि विशेष की विभिन्नता ही एकता की कड़ी होती है। अतः समग्र रूप से उद्देश्य के धरातल का मूल्यांकन करने वाले रस-साधकों व रसज्ञ आलोचकों से मेरा यही आत्मनिवेदन होगा, वैसे कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है. मात्र सदाग्रह है जो अमान्य नहीं ही होगा। ऐसा विश्वास पालने में मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं दृष्टिगोचर होता। अन्यथा ये महाकवि भवभूति की मार्मिक उक्ति को ही दुहराकर संतोष रखेंगे कि उत्पत्स्यते च मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी। इस "सादा जीवन उच्च विचार" के प्रतीक शान्त व गम्भीर व्यक्तित्व में कितनी वाक्यपटुता है. प्रत्युत्पन्न मति है, आशुकाव्य-स्फुरण के बीज हैं। इनके कुछ संस्मरणों के उद्धरण इसे प्रमाणित करेंगे बात बहुत पुरानी है। एकबार बीकानेर में सर मनू भाई मेहता के भाई श्री वी० एम० मेहता, जो महाराजा के प्रधानमन्त्री थे. की अध्यक्षता में एक कवि सम्मेलन का आयोजन था। श्री भंवरलालजी वहाँ उपस्थित थे। अध्यक्ष ने आपसे भी कुछ सुनाने के लिये कहा। आप उठे और एक आशुकवि की भाँति आठ भाषाओं में. जिनमें संस्कृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला, हिन्दी भाषायें भी सम्मिलित थीं. एक कविता पढ़कर सुनायी। कविता में भगवान महावीर की स्तुति थी जिसका संकलन इस प्रकार हुआ है अष्ट भाषा मयैषा वर्द्धमान प्रभुस्तुतिः । स्वभक्त्या सकौतुकेन विक्रमाख्यपुरे कृतः ॥ . एकबार आप श्री अगरचन्दजी के साथ, राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर (रतनगढ़ में) उपस्थित थे। वहाँ पुस्तकों की प्रदर्शनी में आप दोनों महानुभाव अपनी रुचि के अनुसार पुस्तके उलट-पलट रहे थे। अगरचन्दजी के हाथ नेवारी लिपि की कई प्रतियाँ आयीं। आपने देखा और समझने की भी चेष्टा की। किन्त लिपि का कोई ओर छोर न मिला। आपने श्री भंवरलालजी से उन्हें देखने को कहा। आपने पुस्तकें ली और वर्णमाला बनाने में व्यस्त हो गये। दूसरे दिन सारी प्रतियां पढ़कर चाचाजी को सुना दी तथा उसके सम्बन्ध में एक लेख भी प्रकाशित किया । ६६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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