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की बदलती हुई व्यंजनाशक्ति, ध्वनि, शब्द तथा वाक्यांशो में अंतर को स्थिति तत्तद्देशीय विद्वानों द्वारा निर्णति होनी चाहिए। रासो ग्रन्थों के विषय में रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, राहुल सांकृत्यायन, डॉ० रामकुमार वर्मा, डॉ० धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ० भोलानाथजी के विचार असमंजस की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं पर डॉ० मोतीलाल मेनारिया, गौरीशंकर ओझा तथा अन्ततः डॉ० दशरथ शर्मा आदि विद्वानों की सम्मति क्यों न निर्णायक मानो जाय । नाहटा-बन्धुओं ने इस दिशा में प्राचीनतम प्रतियों की अनेकानेक प्रतिलिपियाँ तैयार करके जो स्तुत्य काम किया है. इनका यह प्रयास इस दिशा में विशेष सहायक हुआ है। अन्तः और बाह्य-साक्ष्य की प्रामाणिक स्थिति के लिए इनका अमूल्य सहयोग हिन्दी साहित्य के आदिकाल के लेखकों, आलोचकों व मनोवैज्ञानिकों के लिये वरदान सिद्ध हुआ है और होता रहेगा। उक्त विचार श्री भंवरलालजी ने अनेकों बार व्यक्त किया है. मैंने तो प्रसंगवश उनकी चर्चा की है। बंगला और मागधी को लेकर भी यही विवाद विद्यापति के विषय में चर्चा का विषय बनता रहा है। मेरी समझ में दोष Methodist Scholars के मानस की विकल्प स्थिति का है। किसी विषय का प्रारम्भ ही वस्तुतः विवादग्रस्त होता है. पर उसकी अक्षुण्ण परम्परा विवादों को वाग्जाल समझ कर त्यागती रही है। नाहटावन्धुओं ने आलोचना की भूमि दी है, आलोचनाएं कम की हैं। साहित्य का उद्धार किया है, निर्णय की पृष्ठभूमि दी है: यह निर्विवाद सत्य है।
साहित्य-साधना कर्म और ज्ञान-साधना से पृथक् नहीं रखी जा सकती क्योंकि साहित्य-साधना के साथ कर्म और ज्ञान का पूरा सम्मिश्रग होता है। फलतः अभिव्यक्ति चाहे स्वान्तः सुखाय हो या बहुजन हिताय, दोनों में अन्तर नहीं होता। इसलिये कि जो स्वान्तःसुखाय है. वह बहुजन के परिवेश का ही परिणाम है। व्यक्ति और समाज की आवश्यकताओं से सम्बन्धित भावनायें ही अभिव्यक्ति के माध्यम से साहित्य की संज्ञा पाती है। अतः 'स्व' और 'पर' के ज्ञान की प्रेरणा का फल कर्म यदि भावानुभूति की तीव्रता के प्रवाह को साहित्य की विधा देता है तो सृजन को प्रकृति तीनों ही मनःप्रवृत्तियों की प्रकृति स्वीकार की जानी चाहिये अन्यथा कर्मयोग व ज्ञानयोग दोनों ही भावयोग से पृथक केवल एक शास्त्रीय मर्यादा बन कर रह जायेंगे। यदि मनेन रागात्मिका वृत्ति ही काव्य के आधार माने जायेंगे तो विरागजन्य भावाभिव्यक्तियों को नोटिस मात्र समझ कर हम तिरस्कृत करते रहेंगे और भक्तिरस साधकों की विशाल कृतियाँ साहित्य की श्रेणी से अलग पुस्तकालयों की निधि बन कर ही रह जायेंगी। मेरा तात्पर्य यह है कि मन की समस्त स्थितियों व प्रकृतियों को राग-विराग किसी भी स्थिति में यदि रसानुभूति होती है और वह अभिव्यक्ति पाने के आवेग से व्याकुल होकर, विमल उच्छवास हे.कर, व्यक्त होती है तो आलोचकों की रसव्यंजना की श्रेणी में गिनी जानी चाहिये अन्यथा हम मानव मन के प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे और अनेकानेक प्रतिभाएं विलुप्त हो जायेंगी। नाहटा-बन्धुओं के सृजन स्वान्तःसुखाय व बहुजनहिताय दोनों ही है। भंवरलालजी ने प्रायः स्वान्तःसुखाय रचनायें ही की है और जहाँ ज्ञान और कार्य दोनों का ही समवेत सृजन हुआ है वहाँ सामाजिक चेतना का प्रतिफल ही स्वीकार करना पड़ेगा।
इनकी कृतियों की महत्ता प्रायः विशिष्ट विद्वानों की प्रज्ञाचक्षु से परीक्षित हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० गौरीशंकर ओझा, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० मोतीचन्द, मुनि कान्तिसागर तथा मुनि जिनविजयजी आदि जैन साहित्य के मर्मज्ञ, पुरातत्त्ववेत्ता, प्रकाण्ड आलोचक व इतिहास-विशेषज्ञों की दृष्टि में इनके कार्य
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