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११. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह प्रतिमा भी सप्तफण मण्डित है और सिंहों के ऊपर लटकते वस्त्र वाले पव्वासन पर विराजमान है । उभय पक्ष में धोती पहनी प्रतिमाएँ और ऊपर छत्र लगा हुआ है । निम्न माग में दाहिनी ओर यक्ष व वाम पार्श्व में अम्बिका देवी अलंकृत टोडी पर कमलासनस्थ है । यह प्रतिमा दुर्गराज कृत स्नात्र प्रतिमा हो सकती है।
१२. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह प्रतिमा सप्त फणोपरि पट्टिका और कलश युक्त है। सिंहासन के वस्त्र. उभय काउसग्गियों के पास स्तम्भ व निम्न भाग में नौ ग्रह हैं ।
स्नात्र प्रतिमा है। इसके पृष्ठ भाग में लिखे कुटल लिपि के लेख से यह स्पष्ट है। इसके उभय पक्ष में अवस्थित काउसग्ग मुद्रा वाली प्रतिमाएँ धोती पहनी हुई हैं ओर वे पव्वासन के नीचे से निकले हुये कमलासन पर खड़ी हैं। उभय पक्ष में एक और साँप . पर पद्मावती और दूसरी ओर गजारूढ़ देवी हैं। सिंहासन के मध्य में भी एक व्यक्ति विराजित है। निम्न भाग में नौ ग्रह और उनके उभय पक्ष में सिंहासन के पायों में से निकले हुये कमलासन पर दाहिनी ओर गजारूढ़ यक्ष और वाम पार्श्व में सिंहवाहिनी अम्बिका है जिसकी गोद में बालक परिलक्षित है। काउसग्गियों के आसन से फिर प्रतिशाखा निकलकर दोनों और अपने दोनों हाथों में वस्त्र धारण किये पुरुष बैठे हैं। प्रतिमा के सप्त फण का अर्द्धभाग खण्डित हो जाने से दूसरे पीतल के सप्त फण बना कर जोड़ दिये गये हैं। नेत्र चाँदी की मीनाकारी या रत्नजटित रहे होंगे जिन्हें निकाल डाला गया है अतः गढ़े मात्र रह गये हैं। नीचे वाले पायों पर भी सिंह खड़े हैं और मध्य भाग में एक व्यक्ति की मूर्ति है।
१३. समवसरण प्रतिमा-यह चौमुख शिखरवद्ध प्रतिमा भी देवालय जैसी लगती है. सभी प्रतिमाएं राजस्थानी शिल्प कला से अनुप्राणित है।
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इन प्रतिमाओं के साथ एक अत्यन्त सुन्दर कलापूर्ण स्त्री मूर्ति प्राप्त हुई है जो त्रिस्तरीय कमलासन पर अपनी लचीली देहयष्टि को किञ्चित् दाहिनी ओर किये खडी है। यह पैरों में नुपुर, हाथ में दोनों ओर बंगडियों के बीच चूड़ियाँ पहनी हुई हैं। साड़ी की धारियाँ बहुत ही सुन्दर हैं और उत्तरीय को भुजबन्द के पास से कलात्मक ढंग से मोड़कर नीचे गोड़ों तक लहराता दिखाया है। त्रिवलीदार गले के नीचे हार और तिलड़ी नाभि के ऊपर तक पहनी हुई है। मुद्रा की भाँति बड़े कर्णफूल सुशोभित हैं। यह प्रतिमा प्राचीन राजस्थानी कला का प्रतिनिधित्व करने वाली भाव-भंगिमा युक्त अद्भुत एवं सुन्दर है। शंकरदान नाहटा कला भवन :
हमारे इस कला भवन में जैन-जैनेतर अनेक धातुमय प्रतिमाओं का संग्रह है जिनमें दो जिन प्रतिमाएं प्राचीन और कलापूर्ण हैं।
१. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह सपरिकर प्रतिमा सं० १०२१ की क्लिपत्य कूप चैत्य की गोष्ठी द्वारा निर्मापित
२. सपरिकर इकतीर्थी-जिनेश्वर भगवान के ऊपर छत्र व पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल फूल की पंखुड़ियों वाला है जिनके आगे पट्टिका के सहारे भगवान विराजित हैं। उभय पक्ष में चामरधारी व ऊपर वस्त्र लिये किन्नर व नीचे दोनों ओर यक्ष व अम्बिका हैं। पव्वाासन व प्रतिमा के हाथ जर्जरित होकर लुप्त हो गये हैं। इस पर “संवत् ११३० ज्येष्ठ सु० १० सांत स प्र० बारिता" अभिलेख है। श्री मोतीचंद खजानची संग्रह :
इनके संग्रह में दो चौवीसियाँ हैं जिनमें से एक सं० १२३१ की है जिसके परिकर के ऊपरी भाग में २१ प्रतिमाएँ सेमीसर्कल में हैं। मूलनायक भगवान के दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रावस्थित जिन हैं। मूलनायक भगवान के नेत्रों में रजत पूरित है। परिकर के दोनों ओर अम्बिका व यक्ष है। सिंहासन पर सिंह युगल व मध्य में कोई
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