SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरातत्व एवं कला के महान प्रेमी स्व० पूरनचन्दजो नाहर ने 'विशालभारत' ( सितम्बर १९३०) में चौरासी शीर्षक लेख प्रकाशित किया था । उसमें आपने कई ज्ञातव्य बातों की जानकारी उपस्थित की है एवं १ चौरासी आसन. २ चौरासी संग, ३ चौरासी ज्ञाति, ४-५ चौरासी चौहट्टे, ६ चौरासी गच्छों की सूची भी प्रकाशित की है । नाहरजी के उक्त लेख से यहाँ पाठकों की ज्ञानवृद्धि के लिये कतिपय बातें उद्धत की जा रही हैं (१) चतुर्दश राजलोक के जीव-भेद की संख्या चौरासी लक्ष के ८४ अङ्कको महत्वपूर्ण समझ कर बहुत सी जगह इसका व्यवहार प्रचलित होना संभव ज्ञात होता है। (२) 'घेरंड संहिता' के मत से जीव-जंतुओं की संख्या जितनी हंती है आसन की गणना भी उतनी ही निकली है। शिवजी के आसनों की संख्या वही चौरासी लक्ष कही गई है। उसमें ८४ प्रकार के प्रधान आसन बताये गये हैं। शिव संहिता' के मत से भी चौरासी प्रकार के आसन है । . 'कामशास्त्र' के अनुसार चौरासी प्रकार के आसनों की संख्या भी प्रसिद्ध है। पूना से चौरासी आसन' नामक जो मराठी भाषा की सचित्र पुस्तक प्रकाशित हुई है उसमें ९३ आसनों के नाम और चित्र पाये जाते हैं। (३) जौहरी लोग जिन रत्नों को संग कहते हैं उनकी संख्या भी वे चौरासी बताते हैं परन्तु यह संख्या कल्पित मालूम होती है । पाठकों को यहाँ एक और वात की ओर ध्यान दिलाता हूँ कि जोहरी लोग चौरासी के फेर में पड़ जाने के भय से इस चौरासी संख्या से इतने सशंकित रहते हैं कि अपने व्यापारादि में इस संख्या का व्यवहार कदापि नहीं करते अर्थात् यदि चौरासी रुपये के भाव में उन लोगों से कोई सौदा मांगा जाय तो स्वीकार नहीं करते पीने चौरसी में बेचने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे न तो वजन में कदापि ८४ रतो माल बेचते हैं और न किसी पुड़िये में ८४ नगीने रखते हैं। Jain Education International (४) भारतवर्ष के कई देशों में ऐसे नाम के परगने और तालुके मिलते हैं जिनकी सृष्टि चौरासी ग्रामों को लेकर हुई होगी। (५) नृत्य के समय पैरों में वहुत से घुंघरु बांधे जाते हैं, सख्याधिक्य के कारण उनको भी चौरासी कहते हैं। (६) चौरासिया - यह गौड़ ब्राह्मणान्तर्गत एक ब्राह्मणसमुदाय है। इनकी बस्ती जयपुर या जोधपुर राज्य में है। किसी समय चौरासी ग्रामों की वृति इनके यहाँ थी. अतः ये चौरासियै ब्राह्मण कहलाये । (७) ब्राह्मणों की तरह जैनियों में भी श्रावकों की जाति की संख्या चौरासी कही जाती है। इन श्रावकों की जातियों के नाम वही चौरासी अंक के महत्व के लिये एकत्रित किये गये होगें । (८) इसीप्रकार जैनियों के आचार्यों में जो गच्छ भेद हैं उनकी संख्या भी प्रसिद्धि में चौरासी बतलाई जाती है परन्तु वास्तव में चौरासी से भी अधिक मिलते हैं। (९) कई स्थानों में जैन तीर्थों की संख्या भी चौरासी देखने में आई है। (१०) दिगम्बर जैन लोग मथुरा के पास वृन्दावन के रास्ते में एक स्थान को भी चौरासी कहते हैं और वहाँ अन्तिम केवली श्री जंबू स्वामी का निर्वाण मानते हैं। परन्तु वे लोग स्थान का नाम चोरासी होने का कुछ कारण नहीं बताते हैं। अपनी साहित्य प्रवृति के प्रारंभिक काल से स्वर्गीय नाहर जी से हमारा उनके जीवन पर्यन्त वड़ा मधुर सम्बन्ध रहा है, अतः जब उन्होंने अपने 'चौरासी वाले लेख की प्रति हमें दी तो हमने कतिपय नवीन सूचनायें उन्हें दीं पर वे प्रकाशित न हो सकीं। इधर हमने उसी समय से चौरासी संख्या वाली जितनी भी बालों का जहाँ कहीं उल्लेख देखा, नोट करते गये। कई वर्षों से उनके प्रकाशन का विचार हो रहा था। पर अन्य साहित्यिक कार्यों में लगे रहने से वह कार्य न हो सका। सुयोगवश [ १९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy