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में वास्तविक कुबेर तथा कुवेर रूपधारी वसुदेव का वर्णन है । रूपसाम्य के कारण कनका उलझन में पड़ जाती है । अंगूठी उतारने से वसुदेव का यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है । कनका माला पहनाकर उसका वरण करती है । सप्तम सर्ग में क्रमशः कनका तथा वसुदेव की विवाहपूर्व सज्जा का वर्णन है । कनका का पाणिग्रहण, विवाहोत्तर भोज तथा नववधू की विदाई अष्टम सर्ग का विषय है । षड् ऋतु वर्णन पर आधारित नवम् सर्ग चित्रकाव्य के चमत्कार से परिपूर्ण है I दसवें सर्ग में अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी स्वयंवर में अन्य राजाओं को छोड़ कर, विद्याबल से प्रच्छन्न वसुदेव का वरण करती है जिससे उनमें युद्ध ठन जाता है । ग्यारहवें सर्ग में नवदम्पति के मथुरा में आगमन तथा सम्भोग क्रीड़ा का वर्णन है । बारहवें सर्ग में सन्ध्या, चन्द्रोदय तथा प्रभात के परम्परा - गत वर्णन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है ।
दुसुन्दर की रचना यद्यपि नैषध का संक्षिप्त रूपान्तर करने के लिये की गयी है तथापि घटनाओं के संयोजन में पद्मसुन्दर अपनी सीमाओं और उद्देश्य दोनों को भूल गये हैं । उनकी दृष्टि में स्वयंवर काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है | काव्य के चौथाई भाग को स्वयंवर - वर्णन पर क्षय करने का यही कारण हो सकता है । निस्सन्देह यह उसके आदर्शभूत नैषध चरित के अत्यधिक प्रभाव का फल है | पांच सर्गों का स्वयंवर वर्णन (१० - १४ ) नैषध के विराट् कलेवर में फिर भी किसी प्रकार खप जाता है । यदुसुन्दर में, चार सर्गों में ( ४-६, १०), स्वयंवर का अनुपातहीन वर्णन कवि की कथाविमुखता की पराकाष्ठा है । अन्तिम सर्ग को नवदम्पति की कामकेलियों का उद्दीपक भी मान लिया जाए, नवें सर्ग का ऋतु वर्णन काव्यशास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति के लिये किया गया प्रतीत होता है। दसवें सर्ग में रोहिणी के स्वयंवर का चित्रण सर्वथा अनावश्यक है। यह वसुदेव के रणशौर्य को उजागर करने की दृष्टि से किया गया है जो महाकाव्य के नायक के लिये आवश्यक है। ये सभी सर्ग कथानक के स्वाभाविक अवयव न होकर बलात् चिपकाये गये प्रतीत होते हैं । इन्होंने काव्य का आधा भाग हड़प लिया है । यदुसुन्दर का मूल कथानक शेष छः सर्गों तक सीमित है ।
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पद्मसुन्दर को प्राप्त श्रीहर्ष का दाय: यदुसुन्दर तथा नैषध चरित :
नैषध चरित की पाण्डित्यपूर्ण जटिलता तथा शैली की क्लिष्टता के कारण उत्तरवर्ती कवि उसकी ओर उस तरह प्रवृत्त नहीं हुए, जैसे उन्होंने कालिदास अथवा माघ के दाय को ग्रहण किया है। पद्मसुन्दर नैषध चरित के गुणों (?) पर मुग्ध थे पर उसका विशाल आकार उनके लिये दुस्साध्य था । अतः उन्होंने यदुसुन्दर में नैषध का अल्पाकार संस्करण प्रस्तुत करने का गम्भीर उद्योग किया है । कथानक की परिकल्पना और विनियोग में पद्मसुन्दर श्रीहर्ष के इतने ऋणी हैं कि यदुसुन्दर को, मित्र पात्रों से युक्त नैषध की प्रतिच्छाया कहना अनुचित न होगा ।
दुसुन्दर के प्रथम सर्ग में यदुवंश की राजधानी मथुरा का वर्णन नैषध चरित के द्वितीय सर्ग में विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर के वर्णन से प्रेरित है । श्रीहर्ष ने नगरवर्णन के द्वारा काव्यशास्त्री नियमों को उदाहृत किया है, मथुरा के सामान्य वर्णन में उसकी स्वर्ग से श्रेष्ठता प्रमाणित करने की प्रवृत्ति लक्षित होती है । द्वितीय सर्ग में नैषध के दो सर्गों ( ३,७ ) को रूपान्तरित किया गया है। कनका का सौन्दर्य चित्रण स्पष्टतः दमयन्ती के नखशिख वर्णन ( सप्तम सर्ग ) पर आधारित तथा उससे अत्यधिक प्रभावित है । श्रीहर्ष की भाँति पद्मसुन्दर ने भी राजकुमारी के विभिन्न अंगों का एकाधिक पद्यों में वर्णन करने की पद्धति ग्रहण की है परन्तु उसका वर्णन संक्षिप्त तथा क्रमभंग से दूषित है, हालांकि यह नैषध की शब्दावली से भरपूर है । सर्ग के उत्तरार्द्ध में हंस का दौत्य नैषध के तृतीय सर्ग के समानान्तर प्रसंग का अनुगामी है । दोनों काव्यों में हंस को, नायिका को नायक के प्रति अनुरक्त करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गयी है जिसके फलस्वरूप वह अपने प्रेमी के सान्निध्य के लिये अधीर हो जाती है । दोनों काव्य में हंसों के तर्क समान हैं तथा वे अन्ततः नायकों को दौत्य की सफलता से अवगत करते हैं । तृतीय सर्ग में पद्मसुन्दर ने नैषध चर के पूरे पाँच विशालकाय सर्गों को संक्षिप्त करने का घनघोर परिश्रम किया है । कनका के पूर्वराग के चित्रण पर दमयन्ती के विप्रलम्भ-वर्णन ( चतुर्थ सर्ग ) का इतना
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