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उनमें से थोड़ी-सी कृतियाँ 'देवचन्द्र पद्य पीयूष' नाम से प्रकाश में आई हैं। चौबीसी विवेचन, देशनासार, अध्यात्म गीता आदि साहित्य यद्यपि प्रकाश में आये हैं पर राष्ट्रभाषा में अभी बहुत कुछ करना अपेक्षित है।
श्रीमद् देवचन्द्रजी की स्नात्रपूजा में जिन भावउर्मियों का व्यक्तिकरण हुआ है, गाने वाले आत्मविभोर हो जाते हैं। क्योंकि उनके गर्भ में आने पर माताने देवेन्द्रों द्वारा मेरुशिखर पर स्नात्र महोत्सव का स्वप्न देखा था. जिससे उनका जन्म नाम देवचन्द्र रखा गया और दक्षा नाम राजविमल होने पर भी उसी नाम से प्रसिद्धि हुई । कवियण ने 'देवविलास में यह भी लिखा है कि उनके मस्तक में मणि थी जो अग्नि-संस्कार के समय उछल कर पाताल में चली गई, किसी के हाथ नहीं आई स्नात्रपूजा में जो पदलालित्य और भावों को उल्लसित कर आत्मा को ऊँचा उठाने की शक्ति है। वह अन्य पूजाओं में नहीं, क्योंकि वह असली माल है। बाकी सब नकलें हैं फिर भी आज गच्छ व्यामोह और पक्षपात वश उससे लाभ उठाने का अनेक स्थानों में निषेध करते हैं, गाने मे मुंह चुराते हैं।
श्रमद्र की शिष्य परम्परा दो सौ वर्ष पूर्व ही शेष हो गईं। उनका जीवनचरित्र शिष्यों ने कवियण से 'देवविलास' रूप में लिखवाया था क्योंकि वे स्वयं समर्थं विद्वान होने पर भी लिखने से कहीं अतिशयोक्ति न हो जाय इस कारण निस्पृह रहे थे। देवविलास भी उनके स्वर्गवास के १४ वर्ष बाद लिखा गया तथा अन्य कवि की रचना होने से सर्वाङ्गीण जीवनी नहीं हो सकी हैं तथा घटनाएं कुछ आगे पोछे हो गयी हैं फिर भी यह अमूल्य जीवन स्रोत है। पेढी पर गुजरात पर तथा भरत क्षेत्र पर वर्तमान में महाविदेही केवली अवस्था में विचरण करने वाले उन महापुरुष का महान् उपकार है। पेढी के इतिहान में उनका नाम आने में पेढी का ही गौरव है । उनकी जीवनी का अध्ययन खुले दिल से उदारतापूर्वक करें, वे
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ही पेढी के संस्थापक महापुरुष हैं। गुजरात में शोध करने पर उनकी जीवनी के अनेक बन्द पृष्ठों का उद्घा टन हो सकता है क्योंकि उन्होंने जीवन का सम्पूर्ण उत्तराद्धं वहीं व्यतीत किया और अन्तिम श्वास तक शत्रुंजय की सेवा की थी। शत्रुंजय पर कौवों का आना अमंगलकारी समझा जाने से श्रीमद् ने ही उनका आना बंद करवाया ।
नगरसेठ शान्तिदासजी के उदय से पूर्व शत्रुञ्जय तीर्थ की व्यवस्था जहाँ जहाँ के संघ के हस्तगत रही उस पर संशोधन की आवश्यकता है। पहले अगहिलपुर पाटण के संघ के हाथ में यह व्यवस्था थी। कारण श्रीजिनपतिसू रेजी महाराज सं० १२५३ में वहाँ थे और सुप्रसिद्ध भंडारी नेमिचंद्र को प्रतिबोध दिया था। उसके बाद मुसलमानों द्वारा पाटण नगर का विध्वंश होने पर सूरिजी ने घाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया । उसके बाद कुछ समय तक व्यवस्था घोलका संघ के हस्तगत रही फिर पाटन संघ के हाथ में आई और समराशाह के जीर्णोद्वार के समय वहीं की व्यवस्था थी। मंत्रीश्वर कर्मचंद्र के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल के समय में व्यवस्था उनके हाथ में था । जिन्होंने सं० १३७७ में जिनकुशलसूरिजी का पाट महोत्सव किया व पाटण संघ के साथ मानतुंगविहार नामक खरतरवसही निर्माण कराई व प्रतिमाएँ भी शत्रुञ्जय के लिए पाटण में प्रतिष्ठित कराई - ऐसी बहुत सी जानकारी आवश्यक है। बादशाही फरमानो में मंत्री कर्मचंद्र को शत्रुंजय अकबर द्वारा देने का प्रमाण है । सं० १६५६ में उनके स्वर्गवास के पश्चात् बीकानेर महाराजा रायसिंह की जागीर में जब सोरठ- पालीताना था तब सं० १६५७ में सतीवाद का निर्माण हुआ जिसका सतीवाद के शिलालेख में उल्लेख है। अब तक के प्रकाशित सभी इतिहासों में सतवाद के निर्माता अहमदाबाद के सेठ शांतिदास को लिखा है जब कि शांतिदास सेठ उस समय बारह वर्ष के थे । मैंने ४५ वर्ष पूर्व इस विषय में 'जैन' पत्र में
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