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है जो हिन्दी के समूचे रीतिकाव्य में भी मुश्किल से नव अनुभूति की अभिव्यक्ति है। नीति के ये उपदेश मिलेगी। कला वहाँ जरूर है, चातुरी वहाँ खूब है, एक- जीवन के व्यवहार से सम्बन्धित हैं। इनकी अभिव्यञ्जना एक शब्द में अधिक से अधिक चमत्कृत करने की शक्ति के लिए कविश्री ने उपयुक्त दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं : भी हो सकती है मतलब यह कि वहाँ गागर में गागर सामरू उप्परि तण धरइ तलि घल्लइ रयणाई। भरने की करामात हो सकती है लेकिन गागर में सागर सामि सुभिच्च वि परिहरइ संमाणेइ खलाई ॥ जितना ही अमृत भरने की जो चेष्टा यहाँ है, उस पर
अर्थात सागर तृणों को तो अपने ऊपर धारण करता है रीझने वाले सुजान भी कम नहीं है। कठिन काम गागर में
और रत्नों को भीतर तल में डालता है, स्वामी सुभृत्य सागर भरना हो सकता है लेकिन गागर में अपना हृदय भर
की तो उपेक्षा करता है किन्तु खलों का सम्मान करता है। देना कहीं अधिक कठिन है। हेम व्याकरण के इन दोहों की स्थिति ऐसी ही है। आर्या और गाहा सतसई की तरह
महत्त्वाकांक्षियों के आदर्श का निरूपण करते हुए इस दोहावली के भी एक-एक दोहे पर दर्जनों प्रबन्ध
कविश्री का कथन है कि कमलों को छोड़कर भूमर समूह काव्य निछावर किए जा सकते हैं।१२
हाथियों के गण्डस्थल से मद पान करने की आकांक्षा रखते
हैं और वहाँ जाते हैं। दुर्लभ को प्राप्त करने की जिनकी ____ हेम व्याकरण में भ्रमर, कुंजर, पपीहा, केहरि, धवल,
इच्छा रहती है, वे दूरी को कुछ भी नहीं समझते । महाद्रुम आदि को लेकर बड़ी ही हियहारी अन्योक्तियाँ कही गई हैं। 'भूमर' संदर्भित अन्योक्ति द्रष्टव्य है :
कमलई मेल्लवि अलि-उलं करि-गंडाई महंति ।
अ-सुलह-मेच्छण जाहं भलि तेण वि दूर गणंति ।। भमर म रुणझणि रणउइ सा दिसि जोइ म रोइ ।
सा मालइ देसंतरिथ जसु तुहूँ मरहि विओइ ।। इस प्रकार अपभश वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपने अर्थात् हे भूमर ! अरण्य में रुनझुन ध्वनि मत कर, उस
'शब्दानुशासन' में वीर, शृगार तथा अन्य रसों से अनुदिशा को देखकर मत रो, वह मालती दूसरे देश चली
प्राणित दोहों को व्याकरण के नियमों को समझाने हेतु गई जिसके वियोग में तुम मर रहे हो।
व्यवहार में लिया है। जिसमें कहीं नीति सम्बन्धी उक्तियाँ
हैं तो कहीं धार्मिक सूक्तियों या अन्योक्तियों का समायोजन ' 'धवल बैल' सम्बन्धी अन्योक्ति भी मार्मिक बन पड़ी
हुआ है। इन दोहों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिहै। अपने स्वामी के गुत्भार (अधिक परेशानी) को
शयोक्ति, विभावना, हेतु, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, उदादेखकर धवल बैल खेद करता है कि मैं ही दो खण्ड करके क्यो न दोनों ओर जोत दिया गया :
हरण आदि अलंकारों के सुन्दर विनियोग से काव्य-सौन्दर्य
का उत्कर्ष परिलक्षित है। इनसे गोरखनाथ, संत कबीर धवलु विसुरइ सामि अहो गरुआ भर पिक्खेवि ।।
आदि परवर्ती कवियों ने प्रेरणा ग्रहण की है। हेमचन्द्र हउँ कि न जत्तउ दुहुँ दिसिहिं खण्डइँ दो पिण करेवि ।।
युग की अपभृश भाषागत एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों को 'महाद्रुम' विषयक अन्योक्ति भी कम महत्त्व लिए नहीं समझने की दृष्टि से इन दोहों की महत्ता असं दिग्ध है। है। चिड़ियाँ महान दुमों के सिर पर बैठकर फल खाती
अपभूश काव्य में धार्मिक साहित्य की प्रचुरता के हैं और शाखाओं को भी तोड़ डालती हैं फिर भी महाद्रुम
मध्य वीर और शृगार रस के इतने उत्कृष्ट छंद उसके उनका कुछ भी अपराध नहीं गिनते :
साहित्यिक गौरव के उत्कर्ष विधायक हैं। धार्मिक क्षेत्र से सिरिं चडिया खन्ति त्फलई पुणु डालई मोडन्ति । दूर ये दोहे लौकिक अपभ्रंश काव्य की मनमोहक झांकी तो विं महद्दुम सउणाहँ फलानि पुनः शाखा मोटयन्ति ।। प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः हेमचन्द्र के दोहे अपभश वाङ्गमय हेमचन्द्र द्वारा उदधृत नीति सम्बन्धी दोहों में अभि- में मुक्तक काव्य के सफल वाहन हैं।
१२ हिन्दी के विकास में अपभृश का योग, पृष्ठ २२८ ।
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