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नारियाँ प्रायः दुर्लभ हैं जिन्हें युद्ध के बिना उदासीन मह- नहीं पहुँच पाता तो बेचारी नायिका अपने अंगों पर खीझ सूमती हो । नायिका का कथन है कि-प्रिय, यह किस देश प्रकट करती है। कविश्री हेमचन्द्र की सूझ और कल्पना में आ गए ! जब से यहाँ आए हो युद्ध का अकाल पड़ा अत्यन्त चमत्कारी है: हुआ है। अरे किसी ऐसे देश में चलो, जहाँ खड्ग का अइ तंगत्तण जं थणहं सौ छेयउ न हु लाहु । व्यवसाय होता हो। हम तो युद्ध के बिना दुर्बल हो गए सहि जइ केम्बइ तुडि-वसेण अहरि पहुच्चइ नाहु । और अब बिना युद्ध के स्वस्थ न होंगे।
रूपकातिशयोक्तियों द्वारा कविश्री हेमचन्द्र ने 'रूपखग्ग विसाहिउ जहिं लहहुँ पिय तहि देसहिं जाहुँ । वर्णन' में सौन्दर्य एवं चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । रण-दुब्भिक्खें भग्गाई विण जुज्झें न बला हुँ । कबरी बन्ध समन्वित मुख सौन्दर्य के वर्णन में कविश्री ने
इस प्रकार हेमचन्द्र के वीर रस के दोहे डिंगल की चन्द्रमा और राहु के मल्ल युद्ध की संभावना व्यक्त की है वीर परम्परा को स्पष्ट करने में सहायक है । ११ इन दोहों तो भूमर कुल के सदृश नायिका के केश ऐसे लग रहे हैं में वीर रस का अभिनव स्वर भास्वर है, युद्ध-वर्णन विचित्र मानो अन्धकार के बच्चे मिलकर खेल रहे हैं। नायिका है, अदभूत है, योद्धा लड़ते-लडते पावों में अपनी अत डियाँ का प्रिय दोषी है, मन उसका लाचार है, सखी कहने आती उलझ जाने, सिर कंधे पर झल जाने पर भी तलवार से तो नायिका नम्रता की नर्मदा में अवगाहन करती हुई हाथ नहीं हटाता। उत्साह का यह अदभुत रूप मात्र युद्ध- कहती हैं कि जब प्रिय सदोष है तो ऐसी बात एकांत में क्षेत्र में ही नहीं अपितु जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी परि- कहो लेकिन ऐसे एकांत में कि मेरा मन भी न जानने पाए लक्षित है।
क्योंकि वह तो प्रिय का पक्षपाती है। पर नायिका को शृगारिक दोहों की परम्परा 'गाहासतसई या लौकिक
एकांत कहाँ प्राप्त होता है : शृगारिक मुक्तकों से संश्लिष्ट की जाती है। ऐसे बहुत
भण सहि निहु अउँ तेव मई जइ पिउ दिट सदोसु । से दोहे हैं जिनमें नायिका स्वयं नायक की वीरता की चर्चा जेवं न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअं तासु ॥ करती है। अनेक दोहे रतिवृत्ति प्रधान होते हुए भी वीर विरह वर्णन में ऊहात्मकता के अभिदर्शन होते हैं । रस पूर्ण दिखाई पड़ते हैं। विशद्ध शृगारिक दोहों में एक कृश तनु वियोगिनी बाला को आँसुओं से चोली को नायिका अपनी सखी या दूती से अथवा दूती, सखी या गीली करते हुए और उष्ण उच्छ, वा सों से सुखाते हुए अन्य कोई स्त्री पात्र नायिका से रति वृत्ति को जागरित दिखाया है। मान सम्बन्धी दोहों में बड़ी मार्मिकता है। करने वाले भाव व्यक्त करती है। कहीं स्वयं नायिका कभी नायिका मान करती है तो कभी नायक । प्रियतम पथिक से वाक्चातुर्य के द्वारा गोपनवृत्ति की अभिव्यक्ति को देखने पर हलचल में वह मनस्विनी मान करना भूल करती है। कविश्री हेमचन्द्र अपनी प्रौढोक्तियों के द्वारा जाती है । एक नायिका मान करने का संकल्प करती है और आलम्बन, आश्रय, उद्दीपन या अनुभाव मात्र का वर्णन सारी रात ऐसी ही कल्पनाओं में बिता देती है किन्तु जब करते दिखाई देते हैं। कहीं नायिका के सम्पूर्ण अंगों का प्रिय का आगमन होता है तो मन धोखा दे जाता है। और कहीं उसके विशेष अंगों-मुख, नेत्र, स्तन, कटि आदि मान विरह के अतिरिक्त प्रवास विरह के अनेक उद्धरण का वर्णन करते हैं। हेमचन्द्र द्वारा निरूपित मुग्धा नायिका मिलते हैं। मान विरह में कृत्रिमता या विलासिता अधिक की खीझ देखते ही बनती है। कविश्री का कथन कि प्रतीत होती है किन्तु प्रवास-विरह में स्नेह अत्यन्त तप्त और किशोरी के स्तनों के बीच की दूरी इतनी कम है कि उद्दीप्त हो जाता है। डॉ. नामवर सिंह ने शृगारपरक उसमें नायक का मन भी नहीं अट सकता। जब ये स्तन दोहों की समीक्षा करते हुए कहा है-"इस तरह प्रणयी इतने उत्तुंग हो जाते हैं कि प्रिय उनके कारण अधरों तक जीवन के इन दोहों में वह सादगी, सरलता और ताजगी
११ हिन्दी साहित्य, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ २२ ।
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