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________________ संख्या न्यूनाधिक होने पर भी लोकप्रियता के कारण "चौरासी" ही बताई गई हैं। इस निबन्ध में हमें चौरासी संख्या वाली जितनी बातें ज्ञात हुई हैं. बतलाने का प्रयत्न करते हैं। सर्वप्रथम २५०० वर्ष प्राचीन जैन समवायांग सूत्र के ८४ बें समवाय में इस संख्या के विषय में जितनी बातें मिलती हैं, उनका निर्देश, मूल पाठ के साथ किया जाता है: चौरासी संख्यात्मक बातें भारतीय साहित्य में कई-कई संख्याओं का अत्यधिक प्रचार देखने में आता है। कई संख्याओं की ओर जनता की विशेष अभिरुचि पाई जाती है, जिस प्रकार ९, ११, २१. ८४.१०८ इत्यादि। जब किसी वस्तु के भेद, प्रभेद के नाम निर्देश किये जाते हैं तो कुछ हीनाधिक होते हुए भी खींच-तानकर उनकी संख्या को अपनी अभीष्ट और लोकप्रिय निकटवर्ती किसी संख्या तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जाता है। जिस प्रकार किसी वस्तु को संख्या १९, २० होती हो तो उसे २१ कर दिया जाता है। क्योंकि १९. २० से २१ की संख्या को लोग अधिक अच्छी मानते हैं। "चउरासीइ निरयवासंसहस्सा, पन्नता। उसमेणं अरहा कोसलिए चउरासीइ पुव्व सया-सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध वुद्धे जाव प्पहीणे. एवं भरहो वाहुबलो वंभी सुन्दरी। सिज्जंसेण अरहा चउरासीइ वास सय सहस्साई सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । तिविट्ठण वासुदेवे चउरासीई वास सय-सहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरइ नेरइयत्ताए उववन्ने। सक्कस्सणं देविंदस्स देवरन्नो चउरासीइ सामणिय साहस्सीओ पं० । सव्वेविणं वाहिरया मंदरा चउरासीइं२ जोयण सहस्साई उड्ड उच्चतेणं पं०, सव्वेविणिं अंजिण पव्वया चउरासीइं २ जोयण सहस्साई उड्ड उच्चतेणं पं०, हरिवास रम्मय वासियाणं जीवाणं धणुपिट्ठा चउरासी जोयण सहस्साइ सोलस जोयणाइ चत्तारिय भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं पं०। पंक बहुलस्सण कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिले चरमंते एसणं चउरासीइ जोयण सहस्साइ अबाहाए अंतरे पं०. विवाहपन्नतीएण भगवतीए चउरासीइ पय सहस्सा पदग्गेणं पं० चउरासीइ नागकुमारा वास सय सहस्सा पं०. चउरासीइ पइन्नग सहस्साइ पं०. चउरासीई जोणि पमुह सयसहरस पं० पुव्वाइयाणं सीस-पहेलिया पज्जवसाणाणं चउरा. सीए गुणकारे पं०. उसमस्सणं अरहओ चउरासीइ समण साहस्सीओ होत्था। सव्वेवि चउरासीइ विमाणा वास सहस्सा सत्ताणउइंच सहस्सा तेवीसंच विमाणा भवतीति मक्खायं ।।" सूत्र ८४ अर्थात्-चौरासी लाख नरकावास. अर्हन्त श्री ऋषभदेव की आयु भी ८४ लक्ष पूर्व. ब्राह्मी, सुन्दरी और भरत काव्यग्रन्थों में कई अक्षरों को दग्धाक्षर बता कर काव्यरचना में उनका प्रयोग निषिद्ध किया गया है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमें उनके प्रयोग से बहुत अनिष्ट होना पाया जाता है । इसीप्रकार लिपिलेखक लोग भी कई अक्षरों को अशुभ समझ कर लिख कर उठते समय प्रति में उन अक्षरों को अन्त में लाकर नहीं छोड़ते। संख्याओं में भी तीन. तेरह आदि संख्याएँ कई बातों में अच्छी नहीं समझी जातीं। कई संख्याओं को उत्तम समझ कर उनका अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है। चौरासी संख्या का व्यवहार भी बहुत स्थानों में मिलता है, जिनमें से कई सार्थक भी हैं, और कइयों की १४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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