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________________ जैन दर्शन के आलोक में । नयवाद और द्रव्यवाद स्वीकार नहीं करता है और व्यवहार नय अभेद को नहीं मानता है। नैगम नय का आधार है. भेद और अभेद, ये दोनों एक पदार्थ में विद्यमान हैं। ये सर्वथा रूप से एक हैं, दो नहीं । परन्तु मुख्य एवं गौण भाव से दो हैं । इस दृष्टिकोण में प्रमुखता एक की ही रहती है। द्वितीय सन्मुख रहता है पर गौण रूप से। कभी धर्म मुख्य बनता है और कभी धीं मुख्य बन जाता है। प्रयोजन और अपेक्षा के अनुसार क्रम में परिवर्तन होता रहता है । ऋजुसूत्र नय का आधार है चरम भेद। यह केवल वर्तमान पर्याय को ही यथार्थ मानता है, उसे ही वास्तविक मानता है । पूर्व एवं पश्चात् की पर्यायों को नहीं। शब्द भेद के अनुसार अर्थ का भेद होता है। यही शब्द नय का मूल आधार है। प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग है। एक -श्री रमेश मुनि शास्त्री अर्थ के दो वाचक नहीं होते हैं। यही समभिरुढ़ नय की ___ मूल भित्ति है। एवंभूत नय के अनुसार अर्थ के लिये नयवाद जैन दर्शन का एक अतीव मौलिक और अति शब्द प्रयोग उसकी प्रस्तुत क्रिया के अनुसार होना विशिष्ट वाद है। चेतन एवं अचेतन के यथार्थ स्वरूप चाहिये । समभिरूढ़ नय अर्थ की क्रिया में अप्रवृत्त शब्द को समझने के लिये प्रस्तुत वाद एक सर्वांग पूर्ण को उसका वाचक मानता है। वह वाचक और वाच्य के दृष्टिकोण व्यक्त करता है और भिन्न-भिन्न एकान्तिक प्रयोग को त्रैकालिक मानता है। किन्तु एवंभूत नय दृष्टियों में आधारभूत समन्वय स्थापित करता है । स्याद्वाद वाच्य-वाचक के प्रयोग को केवल वर्तमान काल में ही सिद्धान्त का यही मूल आधार है। स्वीकार करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सात नयों नयवाद को समझने के लिये यह नितान्त अनिवार्य के विषय इस रूप में बनते हैं : कि उनके मूल को जानने का प्रयास किया जाए। (१) नैगम-अर्थ का भेद, अभेद और दोनों सामान्य रूपेण वैचारिक जगत में तीन धाराएँ प्रवाहित (२) संग्रह-अभेद । हैं। वे ये हैं-ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयी और शब्दाश्रयी । (क) पर संग्रह-चरम अभेद जो विचार संकल्प मूलक होता है, उसे ज्ञानाश्रयी कहते (ख) अपर संग्रह–अवान्तर अभेद हैं। नैगमनय ज्ञानाश्रयी विचार धारा है। जो अर्थ की (३) व्यवहार-भेद, अवान्तर भेद मीमांसा करता है वह अर्थाश्रयी विचार है। संग्रह, (४) ऋजुसूत्र-चरम भेद व्यवहार और ऋजुसूत्र ये तीनों नय अर्थाश्रयी विचार- (५) शब्द-भेद धारा को लिये हुए हैं। ये नय अर्थ के भेद और अभेद (६) समभिरूढ़-भेद की मीमांसा करते हैं। अर्थाश्रित अभेद व्यवहार को संग्रह (७) एवंभूत-भेद नय में लिया गया है। शब्द,श्रयी विचार धारा वह है जो इन सात नयों में संग्रह नय की दृष्टि अभेद है । भेद शब्द को प्रधान मानकर चलती है। शब्द, समभिरुढ़ और दृष्टियाँ पाँच है और नेगम नय की दृष्टि भेद और एवंभूत ये तीनों नय शब्दाश्रयी विचार हैं । अभेद-दोनों से संयुक्त है। वह संयुक्त दृष्टि इस तथ्य अभेद संग्रह दृष्टि का प्रमुख आधार है और भेद का संसूचक है कि अभेद में ही भेद है और भेद में ही व्यवहार दृष्टि का प्रधान आधार है। संग्रहनय भेद को अभेद है । जैन दर्शन ने भेद के साथ ही अभेद को स्वीकार [ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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