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गणधरों द्वारा ग्रन्थित है। दिगम्बर यह बात स्वीकृत नहीं वीर-निर्वाण के एक सहस्र वर्ष पश्चात आचार्य देवधि करते ।
गणि क्षमाश्रमण के आचार्यत्व में वल्लभी में तीसरी वाचना
समायोजित की गई। इसमें समस्त आगम साहित्य द्वितीय वाचना-पाटलीपुत्र की प्रथम वाचना के
लिपिबद्ध किया गया। सम्प्रति जो भी जैन वाङमय विद्यपरचात् ग्यारह अंगों का ज्ञान उसी प्रकार श्रत परम्परा से प्रवाहित रहा। शिष्य ने गुरु से मुखाग्र अधीत किया
मान है उसके लिये हम युगप्रधान आचार्य देवर्धिगणि क्षमा
श्रमण के चिरऋणी हैं। यदि ऐसा न होता तो समस्त श्रत-. और स्मृति कोष में संरक्षित कर लिया। पुनः शिष्य ने .
साहित्य विशृखलित होकर नष्ट हो जाता अथवा श्रतज्ञ अपने प्रशिष्य को उसी प्रकार अधीत करवाया। पर स्मृति की भी एक सीमा होती है । शनैः शनैः विशाल ज्ञान राशि
विद्वानों के अवसान के साथ ही विस्मृति के महासागर में
विलीन हो जाता। को धारण करने वाले शिष्यों-प्रशिष्यों की कमी होती गई। वीर-निर्वाण के सात सौ वर्षों के पश्चात पुनः १२ वर्षों का
पनवों का आगमों के लिखित रूप में उपलब्ध हो जाने के दुष्काल पड़ा। नन्दी चूणी में उल्लेख है कि अकाल में पश्चात् आचार्यों को अक्षय निधि प्राप्त हो गई। फिर तो अनेक मेधावी श्रतज्ञों का अवसान हो गया । श्रत परम्परा
सहस्र लोहिये लिपिक सूत्रों की प्रतिलिपियाँ करने में लग अस्तव्यस्त हो गई। दुर्भिक्ष के पश्चात युग प्रधान आचार्य गये। नगर-नगर में ज्ञान के भण्डार स्थापित हो गये । स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में श्रत संरक्षण के लिये
मनीषियों को श्रत सागर में अवगाहन करने का अवसर आगम-वाचना का आयोजन किया गया। सुविज्ञ आगम
प्राप्त होने लगा। प्राकृत के साथ संस्कृत शिक्षा की ओर वेत्ता मुनिगणों को बुलाया गया। जिन्हें जिस रूप में
ध्यान गया। फिर तो उनको समझने स्पष्टीकरण करने स्मरण था उसी रूप में संकलित किया गया। मथुरा में
के लिये चूर्णियों, टीकाओं की रचनायें हुई। मूल होने से इसे माथुरी वाचना कहते हैं।
प्राकृत के साथ संस्कृत में टीकायें की गई। आचार्य
हरिभद्र, शीलंकाचार्य, शान्त्याचार्य, मल्लधारी हेमचन्द्र, ___ माथुरी वाचना के समानान्तर ही आचार्य नागार्जुन मलयगिरि, क्षेमकीर्ति, अभय देवसूरि आदि अनेक महाकी अध्यक्षता में वल्लभी (गुजरात) में एक साधु-सभा प्रभावक आचार्यों ने विशेष टीकायें लिखकर श्रत साहित्य समवेत हुई। उसमें भी उपस्थित मुनियों ने अपनी-अपनी
को करामलकवत स्पष्ट कर दिया। स्मृति के आधार पर समस्त अंगों-उपांगों का संकलन व राम्पादन किया। स्मृति आधार होने से इतिवृत्तात्म- याद चाणया या टाकाय न हाता ता हम श्रुत ज्ञान कता में पिष्ट-पेषण होता है। ग्रन्थ-विस्तार कम करने में कोरे ही रह जाते। के लिये अन्य सूत्र का निर्देश देकर सूत्रकार आगे बढ़ गये । खंभात, पाटन व जैसलमेर के ज्ञान भण्डार अपने में तीसरी वाचना-दो-दो वाचनायें सम्पन्न होने पर बहुमूल्य निधियाँ समेटे हुए आज भी श्रत सुरक्षा की
अमर गाथा सुना रहे हैं। भी लेखन द्वारा श्रत साहित्य सुरक्षित रखने की चेष्टा नहीं हुई। वही मुखाग्र रखने की परिपाटी ही रही। अतः वर्तमान में भी हिन्दी, अंग्रेजी व इतर भाषाओं में श्रत साहित्य कुछ ही मेधावी श्रमणों तक ही सीमित रह जेनागमों का प्रकाशन किया गया है जो र गया। अतः तत्कालिक समाज ने चिन्तित होकर स्मृति है। इस सम्बन्ध में हम यदि सम्प्रदायगत कार्य न कर एक आधार के स्थान पर लेखन द्वारा श्रत साहित्य को संरक्षित मंच से समवेत कार्य करें तो श्रत साहित्य अधिक महिमाकरने का संकल्प किया।
मण्डित हो सकता है।
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