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________________ किया है। चेतन और अचेतन ये दोनों पदार्थ ही सत् हैं। अतएव सरख की अपेक्षा से अभिन्न है। पर इन दोनों में स्वभाव भेद अवश्य है, इसलिये भिन्न है । वास्तव में अभेद और भेद दोनों तात्त्विक है क्योंकि भेद-शून्य अभेद में अर्थ किया नहीं होती है, विशेष में ही अर्थ क्रिया होती है । परन्तु अभेद शून्य भेद में भी अर्थ क्रिया नहीं होती है, कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं मिलता है। पूर्व क्षण उत्तर क्षण का कारण तभी बनता है जबकि दोनों में एक ध्र ुव, अर्थात् अभेदांश, अन्वयी माना जाए | एतदर्थ ही जैन दर्शन अभेदाश्रित भेद, और भेदाfar अभेद को मानता है। नय के मुख्य भेद दी हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । नैगम, संग्रह, व्यवहार व ऋजुसूत्र चार नय द्रव्यार्थिक हैं और शब्द, समभिपढ़ और एवंभूत तीन नय पर्यायार्थिक है आध्यात्मिक दृष्टि से नय का वर्गीकरण दो प्रकारसे हुआ है— निश्चय नय और व्यवहार नय। जो नय पदार्थ के मूल और पर निरपेक्ष स्वरूप को बतलाता है वह निश्चय नय कहलाता है और जो नय पराश्रित दूसरे पदार्थों के निमित्त से समुत्पन्न पदार्थ स्वरूप को बतलाता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। निश्चय नय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है । तात्पर्य की भाषा में यों भी कहा जा सकता है कि पदार्थ के पारमार्थिक तात्त्विक शुद्ध स्वरूप का ग्रहण निश्चय नय से होता है और अशुद्ध अपारमार्थिक स्वरूप का ग्रहण व्यवहार नय से होता है । व्यवहार नय के मुख्य प्रकार दो हैं : सद्भुत व्यवहार नय और असदभूत व्यवहार नय । एक पदार्थ में गुण गुणी के भेद से, भेद को विषय करने वाला सद्भूत व्यवहार नय है। इसके भी दो प्रकार हैं: उपचरित सभूत व्यवहार नय एवं अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय । सोपाधिक गुण और गुणी में भेद ग्रहण करने वाला उपचरित सद्भुत व्यवहार नय है | freपाधिक गुण और गुणी में भेद ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्द्भुत उपहार नव है। जिस प्रकार जीव का मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि लोक में व्यवहार होता है व्यवहार में उपाधि रूप ज्ञानावरण कर्म के आवरण से कलुषित आत्मा का मल सहित ज्ञान होने से जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान और मनःपर्यंव ये चारों क्षयोपशमिक ३०] Jain Education International ज्ञान सोपाधिक हैं ¡ अतएव इसे उपचरित सद्भुत व्यवहार नय कहते हैं। निरुपाधिक गुण गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला अनुपचारित सद्भूत व्यवहार नय है। उपाधि से मुक्त गुण के साथ जब उपाधि रहित जीव का सम्बन्ध प्रतिपादित किया गया है। तब निरुपाधिक गुण-गुणी के भेद से अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय सिद्ध हो जाता है। जैसे केवल ज्ञान आत्मा का सर्वथा निरावरण क्षायिक ज्ञान है। अतएव वह निरुपाधिक है । असद्द्भुत व्यवहार नय के दो प्रकार हैं: उपचरित असद्भुत व्यवहार नय एवं अनुपचरित असदभूत व्यवहार नय संश्लेषयुक्त पदार्थ के सम्बन्ध को विषय करने वाला जो नय है वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे जीव का शरीर यहाँ पर जीव और देह का सम्बन्ध परिकल्पित नहीं है । किन्तु जीवन पर्यन्त स्थायी होने से अनुपचरित है। जीव एवं देह के भिन्न होने से वह असद्भूत व्यवहार भी है। संश्लेषरहित पदार्थ के सम्बन्ध को विषय करने वाला उपचरित अद्भूत व्यवहार नय है जैसे रामप्रसाद का धन ! यहाँ पर रामप्रसाद का धन के साथ सम्बन्ध माना गया है । किन्तु वास्तव में वह परिकल्पित होने से उपचरित है। रामप्रसाद और धन ये दोनों वस्तुतः भिन्नभिन्न द्रव्य हैं । एक नहीं है। रामप्रसाद और धन का यथार्थ सम्बन्ध नहीं है। I निश्चय नय पर निरपेक्ष स्वभाव का प्रतिपादन करता है । जिन-जिन पर्यायों में पर-निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह शुद्ध नहीं कहता है। पर जन्य पर्यायों को वह पर मानता है। जैसे जीव के राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-लोभ प्रभृति भावों में यद्यपि जीव स्वयं उपादान होता है, यही राग - रूप से परिणति करता है परन्तु यह जो भाव है वह कर्म निमित्तक है। अतएव इन्हें वह आत्मा के निज रूप नहीं मानता है। अन्य जीवों और संसार के समस्त अन्य अजीवों को वह अपना मान ही नहीं सकता। परन्तु जिन आत्म-विकास के स्थानों में पर का किञ्चित् मात्र भी निमित्त होता है उन्हें वह 'स्व' नहीं, 'पर' मानता है निश्चय नय की दृष्टि से जीव बद्ध नहीं प्रतीत होता । कर्म बद्ध अवस्था जीव का कालिक स्वभाव नहीं है । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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