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________________ इस सारस्वत साधना की सिद्धि पर इसलिए भी प्रसन्न था कि जैन साहित्य और इतिहास के अधिकारी विद्वान भंवरलाल जी का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था। फिर तो पत्र-सम्पर्क बढ़ते ही गए और मैं उनका स्नेह भाजन बनता गया। उनके शीघ्र प्रत्यक्ष दर्शन की आकांक्षा बलवती हो गई। भगवान महावीर देव मेरी इस प्रार्थना को सुन रहे थे। मेरी उक्त पुस्तक के प्रकाशन ने इतिहास के विद्वानों को एक बार फिर से महावीर के जन्म स्थान की वास्तविक पहचान के सन्दर्भ में सोचने-विचारने को मजबूर कर दिया । वैशाली के पक्षधरों के लिये सचमुच एक प्रश्नवाचक चिन्ह बन गया । पक्ष और विपक्ष के विवाद से मैं आवृत्त हो गया। मैं चाहने लगा कि इस विवाद को समाप्त करने के लिये देश के समी विद्वानों को एक मंच पर लाया जाना चाहिए । भगवान की असीम अनुकम्पा से मेरी यह इच्छा भी पूरी हो गई । मुझे परमपूज्य अंचलगच्छाधिपति युगप्रभावक आचार्य भगवन्त श्री गुणसागर सूरीश्वर जी महाराज साहब एवं विद्वद्वर गणिवर्य पूज्य श्री कलाप्रभसागर जी महाराज की अशेष कृपा प्राप्त हो गई और उनकी असीम अनुकम्पा से मैं मधुवन (गिरिडीह) में "अखिल भारतीय इतिहास विद्वत् सम्मेलन" का आयोजन सम्पन्न कर सका। देश के कोने-कोने से विद्वान, इतिहासकार एवं आचार्यों ने पधार कर महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में मेरी शोधपूर्ण स्थापना पर अधिवेशन के अनेक सत्रों में विचार-विमर्श किया । निष्कर्णतः उन्होंने इस पर प्रामाणिकता की मुहर लगायी तथा सहमति के हस्ताक्षर भी दिये । यह सम्मेलन सन् १९८४ के नवम्बर माह में २४. २५ और २६ तारीख को, तीन दिनों तक चलाया गया। यहीं पहली बार मुझे पंडित श्री भंवरलाल जी नाहटा के पुण्य दर्शन हुए थे। मेरा सौभाग्य है कि मेरे इस इतिहास सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की थी, और उनके ही श्री चरणों में बैठकर मैंने स्वागताध्यक्ष की हैसियत से अपना लिखित शोधपूर्ण स्वागत भाषण का पाठ किया था । पंडित भंवरलाल जी कलकत्त से चलकर मधुवन पधारे थे। उस समय मैं किसी कार्यवश कच्छी भवन से बाहर था । आते ही उन्होंने मेरी तलाश की। हम दोनों एक-दूसरे के लिये प्रत्यक्षतः अपरिचित थे। सूचना मिलते ही मैं भागता हुआ के कमरे में दाखिल हुआ। मुझे पहचानने में कोई कठिनाई नहीं हुई. क्योंकि वर्षों पूर्व पंडित श्रो अगचन्द नाहटा जी को देखने और उनके पास बैठकर घंटों बातें करने का अवसर प्राप्त कर चुका था। उनके व्यक्तित्व की छाया ने मुझे भंवरलाल जी को पहचानने में सहायता दी। इन्हें देखते ही मैं अभिभूत हो गया । गांधार शैली की किसी सुडौल भव्य मूर्ति की तरह आकर्षक इतिहास पुरुष, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी. राजस्थानी आदि भाषाओं के मर्मज्ञ. इतिहास और पुरातत्त्व के अधिकारी, प्रगम्य पंडित की आभा से देदीप्यमान विशाल व्यक्तित्व. जिनकी आँखों से स्नेह की शीतल ज्योति निकल रही थी. घनी मूंछों से झाँकते अधरों में एक अमन्द मुस्कान तेर रही थी, जिसके भव्य ललाट पर ज्ञान की पंक्तियां रेखाएं बनकर उभर रही थीं, चौथे वय में भो जिनकी आवाज में पंचम सुर का निनाद था, तन से विशाल और ज्ञान से गहरे, ऐसे प्रज्ञा-पुरुष पंडित श्री भंवरलाल जी नाहटा को देखकर मुझे तुरंत ही यह लगा कि मैं सचमुच सरस्वती के किसी प्रणम्य वरद्गपूत के सामने एक बौना की तरह खड़ा हूँ। मेरा मन बार-बार उन्हें प्रणाम कर रहा था और मेरे शब्द उन्हें उतने ही वार प्रणाम निवेदित कर रहे थे। मेरे उस भाषण के बाद उन्होंने अध्यक्ष-पद से बड़ा गम्भीर भाषण दिया था । उनकी आवाज में एक खनक थी और विचारों में विद्वता के सागर की गहराई थी। उन्होंने महावीर के जन्म स्थान से सम्बन्धित मेरी शोध-साधना और भाषण की भूरिशः प्रशंसा की। ३४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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