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आज से चालीस वर्ष पूर्व मैंने लछुआड़ जैन मंदिर में एक लम्बे कदवाले व्यक्ति को देखा जिसके भरा ओर स्वस्थ चेहरे पर शांति विराज रही थी और जो चिन्तन-मनन की मुद्रा में मंदिर के पीछे भाग के चबूतरे पर बैठा था। मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ। फिर क्या था ? मैंने उससे बातें शुरू की। मालूम हुआ कि यही भंवरलालजी नाहटा हैं। जन्मस्थान के संबंध में काफी देर तक उनसे बातें होती रही। सिकन्दरा के इर्द-गिर्द प्राचीन स्थानों को देखने के लिये मैंने इन्हें आमंत्रित किया। दूसरे दिन निश्चित समय पर पूरे परिवार के साथ अपनी छोटी हवागाड़ी से मेरे निवासस्थान सिकन्दरा पर वे पहुंच गये । इनके साथ इनके अनुज हरखचंद जी भी थे। उसी दिन मैं सबों को लेकर कुमार गांव चल पड़ा। उसी गांव के एक किसान श्री विशेश्वर सिंह को लेकर वहाँ के पुरातत्व अवशेषों को देखने के लिये हमलोगों ने गांव की परिक्रमा की। वहां के खण्डहरों-अवशेषों को देखकर नाहटा जी विस्मित हो गये। उन्होंने महावीर की जन्मभूमि संबंधी साक्ष्य जुटाने और इस संबंध में शोध कार्य करने की प्रेरणा दी। नाहटा जी के रूप में मैंने प्रथम जैन विद्वान का दर्शन किया जिन्होंने मुझे इस काम में लगे रहने के लिये प्रोत्साहित किया।
तभी से मैं इस कार्य में लगा हुआ हूँ। मैंने महावीर की जन्मभूमि संबंधी बहुत सारे साक्ष्य जुटाये हैं। मुझे आश्चर्य है कि आजतक इनकी जन्मभूमि विवादास्पद बनी हुई है जबकि सारे साक्ष्य क्षत्रियकुण्ड के पक्ष में ही ठहरते हैं। आदरणीय नाहटा जी इन्हीं स्थानों को महावीर की जन्मभूमि की मान्यता दिलाने के लिये सजग और प्रयत्नशील हैं। इनके सारे प्रमाण मेरे पास मौजूद हैं।
कलकत्ते में जब भी नाहटा जी से साक्षात् होता. इनका पहला प्रश्न होता क्या लिख रहे हैं? आज से ४० वर्ष पर्व इन्होंने मझे अपने छोटे भाई की तरह जो प्यार दिया था, आज वह मेरे पूरे परिवार का प्यार और स्नेह बन गया है। कलकत्ता जाने पर बड़े भाई आदरणीय भंवरलाल जी से मिले बिना में लौटता नहीं है। मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह इन्हीं की प्रेरणा का श्रेय है : भाई साहब एक व्यक्ति नहीं. वरन् एक संस्था हैं-एक विशाल पुस्तकालय, जिसमें ज्ञान का असीम भण्डार भरा पड़ा है। ये एक ही साथ इतिहासकार, साहित्यकार एवं शोधकर्ता हैं। इनका प्रशस्ति-गान मुझ जैसे अल्पज्ञ से संभव नहीं। मैं बड़ा गौरवशाली और भाग्यशाली हैं जो मैं इनके सान्निध्य और सम्पर्क में हैं।
-डॉ० भगवानदास केसरी. सिकन्दरा, मुंगेर
सन् १९७६ में मेरी पुस्तक "भगवान महावीर का जन्मस्थान : क्षत्रियकुंडग्राम, जमुई" के प्रकाशन के पश्चात् बड़े आह्लाद से भरकर, बधाई और आशीर्वाद का संदेश भेजकर हिन्दी साहित्य के अविस्मरणीय अनुसंधायक प्रणम्य विद्वान, पंडित अगरचन्द नाहटा जी ने मुझे पंडित भंवरलाल नाहटा जी से संपर्क स्थापित करने का स्नेहसिक्त आदेश दिया। उनकी यह प्रबल आकांक्षा थी कि मेरी इस पुस्तक को समीक्षा मँवरलाल जी की पत्रिका "कुशल निर्देश" में अवश्य प्रकाशित होनी चाहिए। आदेशानुसार मैंने इन्हें अपनी वह पुस्तक समीक्षार्थ भेज दी। "कुशल-निर्देश" (फरवरी १९८१ ) में भंवरलालजी नाहटा ने उसकी विशद, सुविचारित समीक्षा तो की ही अपने बहुकोणिक सुझावों से भी मेरी शोध-साधना को एक नया आलोक दिया । यह मेरा सौभाग्य था तथा मन ही मन मैं अपनो
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