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सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा गया है। विशेष तथा परिणाम ये दोनों द्रव्य के परिणाम है, क्योंकि ये दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में कालभेद की प्रमुखता अवश्य रहती है जब कि विशेष में देश भेद की प्रधानता होती है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं वे ही देश-दृष्टि से विशेष हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्याय, परिणाम, विशेष, उत्पाद और उपय ये सभी शब्द एकार्थक हैं। द्रव्य-विशेष की विविध अवस्थाओं में इन समस्त शब्दों का अन्तर्भाव हो जाता है। द्रव्य और पर्याय का यथार्थ स्वरूप समझ लेने के पश्चात् यह जान लेना अति आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय इन दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है । द्रव्य और पर्याय ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं या अभिन्न है इस विचारणीय प्रश्न का समाधान यह है कि आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक आत्मा की एक अवस्थाविशेष है अर्थात् उसकी एक पर्याय है। सामायिक आत्मा से भिन्न नहीं है । तथ्य यह है कि पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है। यह द्रव्य और पर्याय की अभेद दृष्टि है। इस दृष्टिकोण का जो समर्थन हुआ है वह आपेक्षिक है । किसी दृष्टि से आत्मा और सामायिक ये दोनों एक हैं । क्योंकि सामायिक आत्मा की एक अवस्था है-आत्मपर्याय है। अतएव सामायिक आत्मा से अभिन्न है, अभेद है। अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया गया है। पर्याय अस्थिर है, तथापि द्रव्य स्थिर है। इस कथन से स्पष्टतः भेद-रष्टि झलकती है। यदि द्रव्य और पर्याय इन दोनों का परस्पर में एकान्ततः अभेद होता तो पर्याय के विनष्ट होते ही द्रव्य का भी क्षय हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय द्रव्य नहीं है । द्रव्य और पर्याय ये दोनों कथंचित भिन्न हैं । पर्याय बदलती रहती है किन्तु द्रव्य अपने आप में अपरिवर्तनशील है । पर्याय-दृष्टि की प्रमुखता की दृष्टि से द्रव्य एवं पर्याय हुन दोनों के कथंचित् भेद का समर्थन किया जा सकता है । द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के कथंचित अभेद की परिपुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के अभेद एवं भेद की विवेचना की जाती है ।
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इसी प्रकार आत्मा और शान के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है। ज्ञान आत्मा का एक मौलिक और अतीव विशिष्ट गुण है। ज्ञान की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। होता रहता है । किन्तु 'आत्मा' द्रव्य वही रहता है । ऐसी अवस्था में ज्ञान और आत्मा कथंचित् भिन्न है । ज्ञान गुण की आत्मा से भिन्न सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह आत्मा की ही एक अवस्था विशेष है। इस रष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा और शान इन दोनों में कथंचित् अभिन्नता है यदि ज्ञान और आत्मा में एकान्ततः अभेद होता तो ज्ञान गुण के विनाश के साथ ही साथ 'आत्म द्रव्य' का भी क्षय हो जाता। ऐसी अवस्था
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में एक शाश्वत - अक्षय 'आत्मा' द्रव्य की सिद्धि नहीं होती । यदि आत्मा और शान इन दोनों में कथंचित भेद नहीं होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता । एक व्यक्ति के ज्ञान की स्मृति अन्य व्यक्ति को भी हो जाती । अथवा इस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे स्वयं को भी नहीं हो पाता। ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अव्यवस्था हो जाती । अतएव आत्मा और शान का कथंचित्र भेद और कथंचित् अभेद मानना ही सर्वथा उचित है। तथ्य यह है कि द्रव्य-दृष्टि से आत्मा और ज्ञान का अभेद सम्बन्ध हैं । और पर्याय की अपेक्षा से दोनों का भेद मानना चाहिये ।
द्रव्य के कितने भेद हैं ? प्रस्तुत प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि जहाँ तक द्रव्य सामान्य का प्रश्न
एक है। वहाँ किसी भी प्रकार की भेद कल्पना ससु त्पन्न ही नहीं है। जो द्रव्य है, वह तत्त्व है और सत् है । सत्ता सामान्य की दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो एक और अनेक सामान्य और विशेष, चेतन एवं अचेतन गुण और पर्याय सभी एक है। अनेक नहीं है । उक्त दृष्टिकोण संग्रह नय की अपेक्षा से सत्य है। संग्रह नव सर्वत्र अभेद देखता है। भेद की उपेक्षा करके अभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह नय का प्रमुख कार्य है। इसी सन्दर्भ में यह तथ्य भी ज्ञातव्य है कि अभेदग्राही संग्रह नय भेद का निषेध नहीं करता है। अपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर अवश्य समझता है। प्रस्तुत नय का अन्तिम विषय सत्ता सामान्य है। हर द्रव्य सत् है ।
सत्ता
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