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सामान्य का जो ग्रहण है वह एकता का अन्तिम सोपान द्रव्यों में धर्मास्तिकाय द्रव्य गति का सहायक कारण है है। जहाँ समूचे भेद भेद-रूप से सत् होते हुये भी और अधर्मास्तिकाय द्रव्य स्थिति का है। इस गति और अभेद रूप से प्रतिभासित होते हैं। सत्ता भेदों को विनष्ट स्थिति का आधार आकाशास्तिकाय द्रव्य है और उस नहीं करती है अपितु उनमें सद्भाव और एकत्व में लगने वाले समय का बोधक काल द्रव्य है। यह गति संस्थापित करती है, भेद के रहते हुए भी अभेद और स्थिति रूप क्रिया करने वाले दो द्रव्य हैं-एक है का संदर्शन होता है अनेकता में भी एकता दृष्टि- जीवास्तिकाय और दूसरा है पुदगलास्तिकाय। हम जो गोचर होती है। इस दृष्टि से द्रव्य अथवा तत्त्व एक है। कुछ भी विविधताएं और विचित्रताएँ देखते हैं, वे सभी यदि हम द्वैत-दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो द्रव्य को
जीव एवं पुद्गल द्रव्य पर आधारित हैं। इनके द्वारा दो रूपों में देख सकते हैं। ये दो रूप इस प्रकार हैं
लोक-व्यवस्था का चक्र चलता रहता है। ये सभी द्रव्य
अनादि-अनन्त हैं। जीव और अजीव । चैतन्य धर्म वाला 'जीव' है और उससे सर्वथा विपरीत 'अजीप' है। इस प्रकार समूचा छहों द्रव्यों में आकाश द्रव्य सर्वत्र व्यापक है और लोक दो विभागों में विभक्त हो जाता है। जीव और अन्य द्रव्य उसके व्याप्य हैं। आकाश धर्म-अधर्म आदि अजीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते शेष पाँच द्रव्यों के साथ भी रहता है और उनके अतिरिक्त हैं। जीव द्रव्य अरूपी है, अमूर्त है। अजीव द्रव्य के उनसे बाहर भी रहता है। वह अनन्त है। अतः आकाश दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। पुदगल रूपी द्रव्य है। के जितने विभाग में छहो द्रव्य रहते हैं, उसको लोक कहा अरूपी अजीव द्रव्य के चार भेद हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मा- जाता है। लोक के अतिरिक्त शेष अनन्त आकाश स्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । इन छः द्रव्यों में अलोक हैं। प्रथम के पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल द्रव्य अन- यह समूचा लोक शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, स्तिकाय है।
अवस्थित है। इस लोक को किसी ने बनाया नहीं है और ___ अस्तिकाय का अभिप्राय है-प्रदेश-बहुत्व । अस्ति न कोई इसका रक्षक है, न नाशक है। किन्तु यह अनादि और काय इन दो शब्दों से अस्तिकाय शब्द निर्मित हुआ है, जीव और अजीव से व्याप्त है। यद्यपि लोकाकाश और है। 'अस्ति' का शब्दार्थ है-विद्यमान होना और अलोकाकाश की सीमा-विभाजन करने के लिये दोनों के काय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । जहाँ अनेक प्रदेशों मध्य कोई रेखा-विशेष खींची हुई नहीं है तथापि एक का समूह होता है उसे 'अस्तिकाय' कहते हैं। उक्त प्राकृतिक भेद अवश्य है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय छहों द्रव्यों के समुच्चय को लोक कहा गया है। लोक आदि द्रव्य जितने आकाश के क्षेत्र में विद्यमान हैं उतने का ऐसा कोई विभाग नहीं है जहाँ पर यह द्रव्य न क्षेत्र को लोकाकाश कहा गया है और उसके अतिरिक्त शेष हो। सभी द्रव्यों के लिये लोक आधारभूत है। इसी अनन्त आकाश को अलोकाकाश कहा जाता है। आकाश सन्दर्भ में एक चिन्तनीय प्रश्न खड़ा होता है कि लोक द्रव्य में धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों को अवकाश देने के गुण का स्वरूप षड्द्रव्यात्मक क्यों है ? क्या इनके अतिरिक्त को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे अन्य कोई द्रव्य नहीं है ? इसका समाधान यह है कि इस घड़ा है, उसमें जल भरा है। उस जलपूर्ण घट में इतनी चराचर विश्व में प्रमुख द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव। भी जगह नहीं है कि अन्य कोई वस्तु डालने पर उसमें वे स्थिर भी हैं और गतिशील भी हैं। यह स्थिति और समा जाए। लेकिन यदि उसमें मुट्ठी भर शक्कर डाल गति बिना आधार के नहीं हो सकती। जीव एवं पुद्गल । दी जाए तो वह भी उसमें समा जाती है और जल का की गति और स्थिति आदि के कारण क्या है ? इन कारणों स्तर भी उतना ही बना रहता है। प्रश्न उबुद्ध होता की विवेचना ही समूचा लोक है और उन सभी कारणों को है घड़ा जब जल से भरा है तो शक्कर को समाने के लिये संलक्ष्य में रखकर ही छः द्रव्य माने गये हैं। इन छहों घट में स्थान कहाँ से आया? इसका समाधान यह है कि
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