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________________ और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लालरंग में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना नहीं है । पद्मलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मानमाया-मोह की अल्पता होती है । चित्त प्रशांत होता है । जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होने से वह ध्यान साधना सहज रूप से कर सकता है । ४८ पीत रंग ध्यान की अवस्था का प्रतीक है । एतदर्थ ही बौद्ध संन्यासियों के वस्त्र का रंग पीला है । वैदिक परम्पराओं के संन्यासियों के वस्त्र का रंग लाल है जो क्रांति का प्रतीक है और बौद्ध भिक्षुओं के वस्त्र का रंग पीला है वह ध्यान का प्रतीक है। वह षष्ठश्या नाम शुक्ल है। शुभ्र या श्वेत रंग समाधि का रंग है । श्वेत रंग विचारों की पवित्रता का प्रतीक है। शुक्ललेश्या वाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है । मन, वचन, काया पर वह पूर्ण नियन्त्रण करता है । जितेन्द्रिय है । ४९ एतदर्थ ही जैन श्रमणों ने श्वेत रंग को पसन्द किया है । श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते हैं । उनका मंतव्य है कि वर्तमान में हम में पूर्ण विशुद्धि नहीं है, तथापि हमारा लक्ष्य है शुक्ल ध्यान के द्वारा पूर्ण विशुद्धि को प्राप्त करना । एतदर्थ उन्होंने श्वेत वर्ण के वस्त्रों को चुना है । लेश्याओं के स्वरूप को समझने के लिए जैन साहित्य में कई रूपक दिये हैं। उनमें से एक-दो रूपक हम प्रस्तुत कर रहे हैं । छः व्यक्तियों की एक मित्र मंडली थी। एक दिन उनके मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि इस समय जंगल में जामुन खूब पके हुए T हम जाँय और उन जामुनों को भरपेट खायें। वे छहों मित्र जंगल में पहुँचे । फलों से लदे हुए जामुन के पेड़ को देखकर एक मित्र ने कहा यह कितना सुन्दर जामुन का वृक्ष है ! फलों से लबालब भरा हुआ है । और फल भी इतने बढ़िया हैं कि देखते ही मुंह में पानी आ रहा है। इस वृक्ष पर चढ़ने की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है कि कुल्हाड़ी से वृक्ष को जड़ ४८ उत्तराध्ययन, ३४ / २६-३० । ४९ उत्तराध्ययन, ३४ / ३१-३२ । आवश्यक, हरिभद्रया वृत्ति, पृ० २४५ । ५० Jain Education International से काट दिया जाय जिससे हम आनन्द से बैठकर खूब फल खा सकें। दूसरे मित्र ने प्रथम मित्र के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा – सम्पूर्ण वृक्ष काटने से क्या लाभ है ? केवल शाखाओं को काटना ही पर्याप्त है । तृतीय मित्र ने कहा- मित्र, तुम्हारा कहना भी उचित नहीं है । बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से भी कोई फायदा नहीं है । छोटी-छोटी शाखाओं को काट लेने से ही हमारा कार्य हो सकता है । फिर बड़ी शाखाओं को निरर्थक क्यों काटा जाय ? चतुर्थ मित्र ने कहा - मित्र, युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । को काटने की कोई आवश्यकता के गुच्छों को ही तोड़ना पर्याप्त है । तुम्हारा कथन भी मुझे छोटी-छोटी शाखाओं नहीं है । केवल फलों पांचवें मित्र ने कहा- फलों के गुच्छों को तोड़ने से क्या लाभ ? उस गुच्छे में तो कच्चे और पके दोनों ही प्रकार के फल होते हैं । हमें पके फल ही तोड़ना चाहिए । निरर्थक कच्चे फलों को क्यों तोड़ा जाय ? छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक प्रतीत हो रही है । इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल पड़े हुए हैं । इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण संतुष्ट हो सकते हैं । फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को काटनेतोड़ने की आवश्यकता ही नहीं । प्रस्तुत रूपक' द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप को प्रकट किया है । छः मित्रों में पूर्व पूर्व मित्रों के परिणामों की अपेक्षा उत्तर- उत्तर मित्रों के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभ म I क्रमशः उनके परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है । इसलिए प्रथम मित्र के परिणाम कृष्ण लेश्या वाले हैं दूसरे के नील लेश्या वाले, तीसरे की कापोत लेश्या, चतुर्थ की तेज लेश्या, पांचवें की पद्म लेश्या और छठे की शुक्ल लेश्या है । For Private & Personal Use Only [ ४७ www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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