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बनाये हुए दिखाई देते हैं जो उनकी शुभू आभा को है। कापोतलेल्या में नीला रंग फीका हो जाता है । प्रकट करते हैं। उनके हृदय की निर्मलता और अगाध कापोतलेश्या वाले व्यक्ति की वाणी व आचरण में वक्रता स्नेह को प्रकट करते हैं। जिन व्यक्तियों के आस-पास होती है। वह अपने दुर्गणों को छिपाकर सदगुणों को काला प्रभामण्डल है उनके अन्तमानस में भयंकर दुर्गणों प्रकट करता है।४६ नील लेश्या से उसके भाव कुछ का साम्राज्य होता है। क्रोध की आंधी से उनका मानस अधिक विशुद्ध होते हैं। एतदर्थ ही अधर्मलेश्या होने सदा विक्षुब्ध रहता है, मान के सर्प फूत्कारें मारते रहते पर भी धर्मलेश्या के सन्निकट है। हैं, माया और लोभ के बवण्डर उठते रहते हैं।४४ वह स्वयं कष्ट सहन करके भी दूसरे व्यक्तियों को दुःखी बनाना
चतुर्थ लेश्या का रंग शास्त्रकारों ने लाल प्रतिचाहता है। वैदिक साहित्य में मृत्यु के साक्षात देवता यम
पादित किया है। लाल रंग साम्यवादियों की दृष्टि से का रंग काला है, क्योंकि यम सदा यही चिन्तन करता क्रांति का प्रतीक है। तीन अधर्म लेश्याओं से निकलकर रहता है कब कोई मरे और मैं उसे ले आऊँ। कृष्ण वर्ण जब वह धर्मलेश्या में प्रविष्ट होता है तब यह एक प्रकार पर अन्य किसी भी रंग का प्रभाव नहीं होता। वैसे ही से क्रांति ही है अतः इसे धर्मलेश्या में प्रथम स्थान दिया कृष्णलेश्या वाले जीवों पर भी किसी भी महापुरुष के गया है । वचनों का प्रभाव नहीं पड़ता। सूर्य की चमचमाती किरणे
वैदिक परम्परा में संन्यासियों को गैरिक अर्थात लाल जब काले वस्त्र पर गिरती है तो कोई भी किरण पुनः
काइ भा किरण पुनः रंग के वस्त्र धारण करने का विधान है। हमारी दृष्टि से नहीं लोटती। काला वस्त्र में सभी किरणं डूब जाती हैं। उन्होंने जो यह रंग चना है वह जीवन में क्रांति करने की जो व्यक्ति जितना अधिक दुगणों का भण्डार होगा दृष्टि से ही चना होगा। जब साधक के अन्तर्मानस में उसका प्रभामण्डल उतना ही अधिक काला होगा। यह
क्रांति की भावना उबुद्ध होती है तो उसके शरीर का
र काला प्रभामण्डल कृष्णलेश्या का स्पष्ट प्रतीक है।
प्रभामण्डल लाल होता है और वस्त्र भी लाल होने से वे द्वितीय लेश्या का नाम नीललेश्या है। यह कृष्ण- आभामण्डल के साथ घुलमिल जाते हैं। जब जीवन में लेश्या से श्रेष्ठ है। उसमें कालापन कुछ हलका हो जाता लाल रंग प्रकट होता है तब उसके स्वार्थ का रंग नष्ट है। नीललेश्या वाला व्यक्ति स्वार्थी होता है। उसमें हो जाता है। तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र व ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लजता, द्वेष, प्रमाद, रस- अचपल होता है। वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और लोलुपता, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है।४७ संन्यासी की प्रवृत्ति होती है।४५ आधनिक भाषा में हम उसे का अर्थ भी यही है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती। सेल्फिश कह सकते हैं। यदि उसे किसी कार्य में लाभ उसके जीवन का रंग ऊषाकाल के सूर्य की तरह होता है। होता हो तो वह अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचाने में संकोच उसके चेहरे पर साधना की लाली और सूर्य के उदय की नहीं करता। किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा उसके विचार तरह उसमें ताजगी होती है। कुछ प्रशस्त होते हैं।
पंचम लेश्या का नाम पद्म है। लाल के बाद पद्म तीसरी लेश्या का नाम कापोत है जो अलसी पुष्प अर्थात पीले रंग का वर्णन है। प्रातःकाल का सूर्य ज्योंकी तरह मटमैला अथवा कबूतर के कण्ठ के रंगवाला होता ज्यों ऊपर उठता है उसमें लालिमा कम होती जाती है
४४ उत्तराध्ययन, ३४/२१-२२ ।
उत्तराध्ययन, ३४/२२-२४ । ४६ उत्तराध्ययन, ३४/२५-२६ । ४७ उत्तराध्ययन, ३४/२७-२८ ।
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