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________________ सुधर्मा पर पड़ा। वर्तमान में जितनी भी श्रमण परम्पराये बिना छेद सूत्रों के गम्भीर अध्ययन कोई साधु, आचार्य विद्यमान हैं वे सभी सौधर्म परम्परा से ही संबंधित हैं। या उपाध्याय जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित अतः भगवान महावीर के पश्चात् द्वादशवाणी के संदेश- नहीं हो सकता। वाहक आय सुधमा बन । उन्हान महावार-वाणा का द्वादश छेद सूत्र छ: है: अंगों के रूप में पुनराकलन किया। वर्तमान आगम (१) निशीथ (२) महानिशीथ (३) व्यवहार साहित्य सुधर्मा की ही देन है । द्वादश अंग निम्न हैं: (४) दशाश्रतस्कन्ध (५) वृहत्कल्प (६) पंचकल्प । (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) मूल सूत्र चार हैं : समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) (६) ज्ञाता (१) उत्तराध्ययन (२) दशवैकालिक (३) आवश्यक धर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) अन्तगडदशांग (४) पिण्ड निर्यक्ति तथा ओघनिर्यक्ति । (E) अनुत्तरोपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक इन सूत्रों का मूल नाम क्यों पड़ा यह भी विचारणीय एवं (१२) दृष्टिवाद। अंगों के साथ उपांगों का भी प्रश्न है । प्राचीन ग्रन्थों में मूल शब्द कहीं भी व्यवहृत नहीं सृजन किया गया। अंग और उपांग की यह पद्धति मात्र हुआ है। इन सूत्रों का अपने में अत्यन्त महत्त्व है। वस्तुतः जैन श्रत साहित्य में ही नहीं वरन वैदिक साहित्य में भी भगवान महावीर के मूल भावों का इनमें चयन किया गया विद्यमान है। वेदों के सम्यग अध्ययन के लिये वेदांगों की था, अतः इनका नाम मूल पड़ा हो-ऐसा सापेक्ष अर्थ रचना की गई थी। बिना वेदांगों के अध्ययन के वेदों का परिकल्पित किया जा सकता है। अथवा उनमें धर्म, समुचित रूप नहीं समझा जा सकता। आचार, दर्शन एवं आदर्शों का अद्भुत संकलन उपलब्ध __ जैन श्रत साहित्य में भी अंगों के साथ उपांगों की है, अतः ये मूल आदर्शों से परिपूर्ण मूल सूत्र हैं । रचना की गई है । ये उपांग भी अंग सूत्रों की तरह संख्या नन्दीसूत्र एवं अनुयोग द्वार : में १२ ही हैं, अन्तर इतना ही है कि अंग गणधरों द्वारा गुंफित है तथा उपांग स्थविर आचार्यों द्वारा रचित ___ नन्दीसूत्र के रचयिता आचार्य देवर्द्धिगणि हैं। यह है । १२ उपांग निम्न हैं : एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इनमें अनेक विषयों का तलस्पर्शी (१) उववाइय (२)रायपसेणइय (३)जीवाजीवाभिगम प्रतिपादन है । जैन वाङमय के विकास में इसका बहुमूल्य (४) पण्णवणा (५) सूरपण्णत्ति (६) चन्दपण्ण त्ति योगदान रहा है। (७) जंबूद्दीप पण्णत्ति (८) णिरयावलिया (६) ___अनुयोग द्वार के रचयिता आचार्य आर्यरक्षित हैं। यह ग्रन्थ प्रश्नोत्तर शैली से रचित है। विभिन्न कप्पवदंसिया (१०) पुप्फिया (११) पुप्फचूलिया (१२) व हिदशा। विषयों पर प्रश्नोत्तरों द्वारा प्रकाश डाला गया है। इसमें बहुत ही गंभीर विषयों का सरलता से प्रतिपादन किया १२ अंगों की विषय दृष्टि के अनुसार ये १२ उपांग गया है। परस्पर सम्बद्ध होने चाहिये परन्तु इस प्रकार का पारस्परिक सामंजस्य इनमें नहीं मिलता। यह एक दस पइपणग (दश प्रकीर्णक) आश्चर्य का विषय है। प्रकीर्णक ग्रन्थ उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो जैन वाङमय में छेदसूत्रों का अपना स्थान है। श्रमणों तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा विविध विषयों पर रचे जाते के आचार विषयक नियम जो भगवान महावीर ने निर्धा- हैं। प्रकीर्णक ग्रन्थों की परम्परा आदि काल से चली आ रित किये थे उनको उत्तरवर्ती आचार्यों ने छेद सूत्रों में रही है । वर्तमान में दस प्रकीर्णक ग्रन्थ माने गये हैंविविध परिवर्तन के साथ ग्रन्थित कर लिये । साधु जीवन (१)चउसरण (२)आउर पच्चक्खाण (३) महापच्चक्खाण के लिये छेद सूत्रों का अध्ययन आवश्यक माना गया है। (४) भत्तपरिण्णा (५) तंडलवेयालिय (६) संथारग २६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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