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बड़ा टोका (अंगठे) से किया जाता था। विभागीय लेख के उभय पक्ष में सुन्दरता के लिये बोर्डर या दो-तीन खड़ी लकीरें खींच दी जाती थीं। ताड़पत्र के पत्ते चौड़े-संकड़े होते थे, अतः कहीं अधिक व कहीं कम पंक्तियां समविषम रूप में हो जाती थीं। लिखते-लिखते जहां पत्र संकड़ा हो जाता था, पंक्ति को शेष करके , , चन्द्र (स्टार) आदि आकृति चिन्हित कर दी जाती थी। अन्त और प्रारम्भ जहाँ से होता, वैसा ही चिन्ह संकेत सम्बन्ध मिलाने में सहायक होता था।
पिरोई जाती थी। उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों में भी उसी पद्धति का अनुकरण कर, खाली जगह रखी जाती: पर डोरी के लिए छिद्र किए ग्रन्थ क्वचित ही पाये जाते हैं, क्योंकि कागज के पत्रों के सरकने का भय नहीं था। खाली जगह में लाल रंग आदि के टीके या फूल आदि विविध अलंकार किये हुए ग्रन्थ भी पाये जाते हैं । उभय पक्ष में ताड़पत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति उभय प्रकार पहले-पहले पाई जाती है, बाद में केवल अंकों में पत्रांक एवं एक ओर ग्रन्थ के नाम की हुण्डी ( Heading ) लिख दी जाती थी। कितने ही संग्रह ग्रन्थों में सीरियल क्रमिक अंक चालू रखने पर भी विभागीय सूक्ष्म चोर अंक कोने में लिखे जाते थे । कागज का साइज एक होने से सभी पत्रों में एक जैसी लकीरें पंक्तियां आती थीं। जहां विभागीय परिसमाप्ति होती वहां लाल स्याही से विराम चिन्ह एवं प्रारम्भ में ||६०|| आदि तथा अंत में
छ। की पद्धति ताडपत्रीय लेखन के अनुसार ही प्रचलित थी। पुष्पिका संवत आदि पर ध्यान आकर्षण के लिये, लाल स्याही से अथवा जैसे लाल पैंसिल फिरा दी जाती है वसे गेरु रंग आदि से रंग दिया जाता था।
पुस्तक लेखन प्रारम्भ में 'दो पाई, मले मीड़ा' के बाद जिन, गणधर, गुरु, इष्टदेव. सरस्वती आदि के सूचक नमस्कार लिखा जाता और जहाँ श्रुतस्कन्ध, सर्ग, खण्ड, लंवक, उच्छवास आदि की पूर्णाहुति होती वहाँ ॥छ।। एवं समाप्ति सूचक अन्य चिन्ह लिखकर कुछ खाली जगह छोड़ कर उसी प्रकार नमस्कारादि सह आगे का विभाग चालू हो जाता। कहीं-कहीं ग्रन्थ के विभाग के शेष में या ग्रन्थ पूर्णाहुति में चक्र, कमल, कलशादि की आकृति बनायी जाती थी। बीच-बीच में जहाँ कहीं गाथा का टीका, भाष्य, चूणि शेष होने के अन्त में भी ॥छ।। लिख दिया जाता था । किन्तु रिक्त स्थान नहीं छोड़ा जाता था।
प्राचीन लेखन वैशिष्ट्य :
कागज के ग्रन्थ-प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थ भी ताड़पत्रीय ग्रन्थों की तरह लम्बाई-चौड़ाई में छोटे मुष्टिपुस्तक के आकार में लिखते, किन्तु दो-तीन विभाग करने आवश्यक नहीं थे। कितने ही ग्रन्थों की लम्बाई ताड़पत्रीय ग्रन्थों की भाँति करके चौड़ाई भी उनसे डवल अर्थात् 8|| इंच की रखी जाती । किन्तु बाद में तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् सुविधा के लिये १२४५ या इससे कमवेशी साइज कर दिया गया। प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थों पर बोर्डर की लकीरें काली होती थी. पर सोलहवीं शताब्दी से लाल स्याही के बोर्डर बनने लगे । ताडपत्रीय ग्रन्थों में 'पत्रों के न सरकने के लिये खाली जगह में छिद्र करके डोरी
ग्रंथ-लेखन में जहाँ वाक्यार्थ या सम्बन्ध पूर्ण होता था वहां पूर्ग विराम, दोहरा पूर्ण विराम एवं अवांतर विषय अवतरण आदि की परिसमाप्ति पर छः|| लिखा जाता था एवं श्लोकांक भी इसी प्रकार लिखा जाता था। विशिष्ट ग्रन्थों में मूलग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने वाले यन्त्र, चिन्ह. लिखने के साथ-साथ श्लोक संख्या, गाथा संख्या, ग्रंथानथ, प्रशस्ति आदि लिखी जाती थी। का अविवेकी लेखक इन्हें न लिखकर ग्रन्थ के महत्व और वैशिष्ट्य को कम कर देते थे।
ताडपत्रीय ग्रन्थों के चित्र व टीके आदि के अतिरिक्त केवल काली स्याही व्यवहत होती थी। जबकि
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