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कवाड़ की राज्याभिषेक ग्रंथमाला के प्रथम पुष्प के रूप सबसे प्राचीन है ।* इसके पश्चात् सं०१४६६ में श्री देवमें प्रकाशित 'एशंट विज्ञप्तिपत्राज' नामक ग्रंथ में कराया सुंदरसूरि को प्रेषित विज्ञप्तिपत्र आता है जिसका अब गया है। अन्य संग्रहालयों में और भी बहुत विज्ञप्तिपत्र केवल गुर्वावली खंड ही अवशिष्ट है, जो प्रकाशित हो हैं जिनका परिचय प्राप्त होने से इस विषय एवं कला का चुका है । तीसरा महत्वपूर्ण विज्ञप्तित्र है 'विज्ञप्तित्रिवेणी' सांगोपांग इतिहास प्रकाश में आ सकता है ।
जो संवत् १४८४ में खरतरगच्छोय उपाध्याय जयसागर गणि जैन समाज के साध. साध्वी, श्रावक, श्राविका संज्ञक
द्वारा श्री जिनभद्रसूरि के प्रति प्रेषित किया गया था । चतुर्विध संघ में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उनके
इसमें सिंध प्रांत के मलिकाहणपुर से नगरकोट-काँगड़ा आज्ञानुवर्ती नाना-स्थान - स्थित मुनिगण पर्यपणा
महातीर्थ की यात्रा का विद्वत्तापूर्ण एवं मनोमुग्धकारी सांवत्सरिक महापर्व की आराधना के अनंतर आचार्य की
वर्णन है। इस प्रकार पंद्रहवीं शती के तीन विशिष्ट सेवामें एक विज्ञाप्तपत्र भेजते थे, जिसमें स्थानीय धर्मकृत्यों
विज्ञप्तिपत्र उपलब्ध हैं। ** सोलहवीं शतो में इस धारा के संवाद, तपश्चर्या, प्रभावना, सूत्र-व्याख्यान-श्रवण तथा
के प्रवाह को बल नहीं मिला, फलस्वरूप उस समय की क्षमापनादि विन त भाव (साध एवं श्रावकों द्वारा) व्यक्त
कोई विस्तृत रचना नहीं पाई जाती । किए जाते थे। इस विज्ञप्तिपत्र द्वारा आचार्य को अपने
सत्रहवीं शती के प्रारंभ की एक रचना (सं०१६नगर में पधारने के लिये आमंत्रित किया जाता था। ०४.१६१२) नाहटा-कला-भवन (बीकानेर) में अपूर्ण विद्यमान मुनिगण द्वारा प्रेषित पत्र पांण्डित्यपूर्ण संस्कृत, प्राकृत है । यह गद्य-पद्यात्मक चित्रकाव्यमय पत्र बीकानेर से आदि भाषाओं में लिखे जाते थे और गद्य-पद्यमय श्री जिनमाणिक्यसूरि जी को जैसलमेर भेजा गया था।*** एवं काव्यगुणों से पूर्ण होते थे तथा श्रावकसंघ द्वारा इसके पश्चात् तो गद्य-पद्यात्मक विज्ञप्तिपत्रों की परंपरा प्रेषित पत्र सचित्र होते थे और संस्कृतमिश्रित लोकभाषा चल पड़ी और दूत-काव्य, खंड काव्य, पादपूर्ति काव्य अथवा केवल लोकभाषा में लिखे जाते थे।
आदि विशिष्ट कृतियों का निर्माण होने लगा, जिनका इस प्रकार के विज्ञप्तिपत्रों की परंपरा बहुत प्राचीन प्रचार अठारहवीं शती तक रहा । **** उन्नीसवीं शती ज्ञात होती है। पाटण मंडार से प्राप्त ताड़पत्र में संस्कृत प्राकृत का स्थान देशभाषाओं ने ले लिया . 'पर लिखित प्रति के प्राप्त मध्य पत्र का उल्लेख पुरातत्त्वविद् जिसके फलस्वरूप विज्ञप्तिपत्र भी गद्य-पद्यमय एवं मिश्रित
श्री जिनविजय जी ने 'विज्ञप्तित्रिवेणी' के पृष्ठ ३२ पर किया । भाषा में लिखे जाने लगे। सत्ररहवीं से उन्नीसवीं शती है। अब तक प्राप्त विस्तृत विज्ञप्तिपत्रों में सं०१४३१ को तक नगर-वर्णनात्मक गजल शैली को प्रोत्साहन देने में मौन-एकादशी के दिन पाटण नगर से श्री जिनोदयसूरि द्वारा यह पद्धति विशेष सहायक हुई और कतिपय गजलें तो अयोध्या - स्थित श्री लोकहिताचार्य को प्रेषित पत्र इसी उद्देश्य से निर्मित हुई। * इसका ऐतिहासिक सार कोटा से प्रकाशित विकास, वर्ष १ सं०१ में लेखक द्वारा दिया जा चुका है। ** जोधपुर के राजकीय संग्रहालय में लगभग हजार श्लोकों का विज्ञप्ति-संग्रह प्राप्त है, उसके प्रारम्भ और अंत के कई पत्र
प्राप्त नहीं हैं। *** 'राजस्थान भारती वर्ष २ अंक १ में प्रकाशित । **** विज्ञप्तिपत्रों का एक विशिष्ट संग्रह मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित सिंघी जैन ग्रंथ माला में शीघ्र प्रकाशित होने
वाला है। इसके अतिरिक्त नाहटा कलाभवन (बीकानेर ) में चित्रकोष रूप विज्ञप्तिलेख, पाणिनीय द्वयाश्रय विज्ञप्तिलेख आदि अनेकों विशिष्ट लेख विद्यमान है ।
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