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कार्य कर पाता है। कुल मिलाकर, आधुनिक मानव समाज सकती है। क्योंकि, श्रमण-संस्कृति के पंचयाम धर्म में में आत्मप्रदर्शन की मिथ्या गतानुगतिकता की ऐसी लहर मानव की चेतना को अनावश्यक आग्रह से अलग कर छा गई है कि वह सिवाय दूसरे का छीनने के अलावा अपेक्षित अनाग्रह के ज्योतिष्पथ की ओर ले चलने की और कुछ सोच ही नहीं सकता। श्रमण-संस्कृति ने अपरिमित शक्ति है। कहना न होगा कि श्रमणइसीलिए, अस्तेयभावना को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा संस्कृति में जीवन के विधायक अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षदी है।
जैसे अवर्णवाद, धार्मिक आचरण के नाम पर हिंसा एवं ईशोपनिषद् की 'तेन त्यक्तेन भञ्जजीथा मा गृधः परिग्रहमूलक आडम्बरों का प्रतिक्षेप, सैद्धांतिक मतों का कस्य स्विद्धनम्' जैसी सामाजिक भावना को उदबुद्ध करने
समन्वय, सामाजिक जीवन में समतावाद की स्थापना के वाली चेतावनी को आज के मानव ने नजरअन्दाज कर
द्वारा स्त्री-पुरुषों के लिए समान प्रगति की योजना, दिया है, इसीलिए उसमें चौर्यवृत्ति आ गई है। आत्मधन
अधिक धन का प्रत्याख्यान और प्राप्त धन का स्वामित्वकी अपेक्षा परधन के प्रति तृष्णा से वह निरन्तर आकुल
हीन समान वितरण, पूँजीवाद का विरोध, ऊँच-नीच
और स्पृश्यास्पृश्य जैसी समाजोत्थान-विरोधी भावना व्याकुल हो रहा है। फलतः, उपके संयम का चाबुक
का निराकरण आदि-प्रति निहित हैं, जिनसे उसके उदात्त बेकार हो गया है और इन्द्रियों के घोड़े बे-लगाम हो गये
दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष परिज्ञान प्राप्त होता है। हैं। उसके जैसा कामगृधू व्यक्ति काम से ही काम को शान्त करना चाहता है। घी से आग को ठण्डा करना श्रमण-संस्कृति में श्रमण, ब्राह्मण, मनि और तापस चाहता है ! और इसके लिए वह चौर्यवृत्ति से ही अपने के लिए किसी निर्धारित वेश-विशेष की आवश्यकता सुख-सन्तोष की सामग्री जुटाने में प्रबल पुरुषार्थ मान नहीं । भगवान महावीर ने इनकी परिभाषा उपस्थित करते रहा है और हिंसा तथा मिथ्यात्व के प्रति एकान्त आग्रह- हुए निर्देश किया है : शील हो उठा है।
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणी। सारस्वत में भी आज अजीब छीना-झपटी चल रही
न मुणी रणवासेण कुसचीरेण न तावसो॥ है। गीता की 'स्वधर्म निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः' की
समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो । चेतावनी भी उसे याद नहीं रह गई है। फलतः, उसकी णाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ तावसो | जिन्दगी की गाड़ी समतल सड़क को छोड़कर उबड़खाबड़ रास्ते में दौड़ पड़ी है। कृत्रिम पाश्चात्य संस्कृति
निस्सन्देह, केवल सिर मुड़ा लेने से कोई श्रमण नहीं की चकाचौंध में पड़ उसने अपनी सहज प्राच्य संस्कृति हाता, न हा आकार क जप स
होता, न ही ओंकार के जप से ब्राह्मण । जंगल में रहने से की उपेक्षा कर दी है। यहाँ तक कि अपनी भाषा और ही मुनि नहीं होता और न कुश तथा चीवर धारण करने साहित्य को भी वह मूल्यहीन मानने लगा है। उसके से तपस्वी। वस्तुतः, जो समता से सम्पन्न है, वही श्रमण मूल्यांकन की तुला ही अभारतीय हो गई है।
है, ब्रह्मचर्य का उपासक ही ब्राह्मण है, ज्ञानी ही मुनि है
और तप करनेवाला ही तपस्वी। यही कारण है कि आधुनिक मानव विभिन्न मतवादों और साम्प्रदायिक रूढियों की वात्या में विलण्ठित हो इस प्रकार, श्रमण-संस्कृति ने प्रत्येक व्यक्ति को रहा है। उसका अपना ज्ञानबोध अहंकार के अँधेरे में डूब उत्थान के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है। अपनी गया है। ऐसी स्थिति में श्वमण-संस्कृति के पंचयाम साधना से सर्वसामान्य व्यक्ति भी पारमेश्वर्य की सिद्धि धर्म की प्रोज्ज्वल प्रभा उसके तिमिरावृत्त हृदय को भास्वर सुलभ कर सकता है । श्रमण-संस्कृति ने ईश्वर के कतृत्व बना सकती है। उसके दिग्भृष्ट जीवन-पोत के लिए को नकारते हुए मानव के अजेय पुरुषार्थ के प्रति अडिग अनेकान्त जयपताका दिशासूचक यन्त्र का काम कर आस्था अभिव्यक्त की है। आत्मशक्ति के प्रति अविश्वास
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